अग्निपाखी

जीवन के संघर्षों के अग्निकुंड में जलते हुए अपनी ही राख से पुनर्जीवित होने का अनवरत सिलसिला....

सपने भी तो
टूटने और मिटने के बाद भी
बसते हैं मन के
सूने अंधेरे कोनों में
उम्मीद के अंसख्य बीज लिए
कि देंगे जन्म नए सपनों की
अनगिन फ़सलों को
और कि
उन सपनों की रोशनी में
कुछ पल और जी लेंगे
क्योंकि सपने कभी मरते नहीं
नए रंगो से लिखी
नई इबारतें लिए
प्रवेश करते हैं
हमारी दुनियाओं में
और रच बस जाते हैं
श्वास और धड़कन में
नई सुमधुर संगीत लहरियां बनकर
उम्मीद की रोशनी को
बुझने से बचाने के लिए
हम भले हो चुके हों नाउम्मीद
पर जिंदगी कभी उम्मीद नहीं खोती
उम्मीद के हर कतरे में
बसती है जिंदगी
और जिंदगी के हर कतरे में
बसते है सपने
और हर सपने में
छुपे रहते है
उम्मीद के बीज
जिनसे
फ़िर से
जन्मती और पनपती हैं
जिंदगी उम्मीद और सपने
...
...

यह मेरी पुरानी कविता "आजादी के नाम एक पाती" है जिसे मैंने पिछले साल अपने ब्लाग पर पोस्ट किया था. आज मैं फ़िर से अपनी इस कविता को आप सबके साथ साझा कर रही हूं...

आजादी के नाम एक पाती

मैं
हवा हूं
धूप हूं
पानी हूं
....

गुदगुदाती हूं हवा बन
अपनी उंगलियों से
किसी बच्चे का
कोमल सा गाल
....

छू लेती हूं फिर धूप बन
अंधेरों से घिरे
हर अनाम चेहरों को
....

टपक पड़ती हूं बूंदे बन
फूलों पर, पत्तियों पर
नन्हीं कोंपलों, अंकुरों पर
....

चाहती हूं
....

श्वास बनू मैं
रक्त बन बहूं शिराओं में
मुस्कान सी बिखर बिखर जाऊं
....

मैं
हवा
धूप
पानी
....

मत रोको मुझे
मैं रूकना नहीं चाहती
मत बांटो मुझे
मै बंटना भी नहीं चाहती
मत बांधो मुझे
मैं बंधना भी नहीं चाहती
....

मैं
हवा
धूप
पानी
....

मेरा न रंग कोई
न कोई रूप मेरा
न कोई भाषा मेरी
न कोई धर्म मेरा
....

मैं
हवा
धूप
पानी
....

फिर क्यों बांध लेना चाहते हो
मुझे क्यों तुल जाते हो बांटने को
क्यों उठा देते हो हर जगह पर दीवारें
क्यों बढ़कर बीच रास्ते में रोक लेते हो
....

मैं
हवा
धूप
पानी
....

मैं स्वछंद निर्द्वन्द
मैं निर्मल उजली
मैं निर्भय शुचि
....

मैं
हवा
धूप
पानी
....

परिचित, अपरिचित
देश, विदेश
हर सीमा के परे
हर बंधन को तोड़
बहती हूं / चलती हूं
....

मैं
हवा
धूप
पानी
....

मत रोको मुझे
मत बांधो मुझे
मत बांटो मुझे
....
....

गमलों में जतन/ और
ढेरों दुलार से उगाए
गुलाब के फूल/ या
आर्किड के पुष्प
या/ फ़िर
उपवनों में
प्यार की छांव में
पनपते
डैफ़ोडिल/ ट्युलिप
की कतार!
.....

इनसे
अक्सर कमतर
ही ठहरते हैं
तपते रेगिस्तानों में
खिलते
नागफ़नी के फूल!
जो
आस पास से/ गुजरती
हवा की नमी महसूस
और
तपते रेगिस्तान के
अंतर में दफ़्न
रीतते जाते
पानी की एक एक बूंद
सहेज
खिलते हैं
अल्हड़ लापरवाह
और उद्दंड से
और मुर्झा जाते हैं
बिन सराहे
....

बिन कराहे
ढुलक जाते हैं
काल के गाल से
आंसू बन कर
धरती भी कराहती है
उन के मूक क्रंदन से
और बादल भी रोता है
अपनी बदनसीबी पर
....

पर
नागफ़नी का फूल
उन की आहों/ और
आंसुओं को भी
सहेज लेता है
आशीष समझ कर
अपने ही भीतर
तभी / तो
उस के अंतर में
पलता है
नमी का समंदर
जो कभी कभी
मरहम बन
देता है
लोगों को
अपना शीतल स्पर्श
और/ रेगिस्तान में
खिलखिलाहट बन
गूंजता है
दूर तक
....

नागफ़नी का फूल
मगर रोता है
अकेले ही
और/ हो जाता है विदा
एक दिन दुनिया से
बिना किसी शिकवे या
शिकायत के!!

...
...

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