अग्निपाखी

जीवन के संघर्षों के अग्निकुंड में जलते हुए अपनी ही राख से पुनर्जीवित होने का अनवरत सिलसिला....

रोशनी को आखिर
क्या मिलता है यूं
जीवन भर जलकर....

अंधेरों के साजिशों
और षड्यंत्रों के साए तले
थर थर कांपता रहता है
हर पल
रोशनी का नन्हा सा वजूद....

रोशनी चाहे तो
पा सकती है
अपनी तमाम मुश्किलों से निजात
सिर्फ देना भर है उसे
साथ अंधेरों का
हर बार, लगातार....

पर यह सब तो है
रोशनी की फितरत के खिलाफ़
वो क्यों चले चालें
और किस के लिए
बिछाए जाल....

जबकि वो खुद है
एक साफ और चमकदार
शीशे की मीनार....

विश्वासघात और षड्यंत्रों की
चौतरफा मार झेलती
रोशनी का टूटा हुआ दिल
ठाने बैठा है जिद
जूझने का
अंधेरों से मरते दम तक....

भले ही
लड़ना पड़े
अकेले और तन्हा....

क्योंकि, आखिर
अंधेरों की हुकुमत भी
भला कब तक
और क्यों कर चलेगी
उस की सल्तनत भी तो
आखिर कभी तो ढहेगी और खत्म होगी....

एक समय तो
ऐसा भी आएगा
जब हर दरार और कोना
भी जगमगाएगा
उस वक्त
अंधेरा खुद अपनी ही मौत
मर जाएगा....

उखड़ जाएंगे पैर
उसके सब सिपहसालारों के
और जिन्होंने भी
दिया था साथ अंधेरे का
वे सभी
रोशनी के बवंडर के सम्मुख
तिनकों से बिखर जाएंगे....

अंधेरों के सामने अभी
रोशनी
लाख कमजोर और लाचार ही सही
पर हौसला और उम्मीद
किसी एक की बपौती तो नहीं....

जिसकी डोर थामे
देखते हैं दबे कुचले लोग
सपने
आने वाले सुनहरे दिनों के....

यही तो देता है
हिम्मत और ताकत
रोशनी को भी
अपनी जिद पर अड़े रहने
और अपने दम पर
अकेले आगे बढ़ने का....

फिर से रोशन होंगी
बेमकसद अंधेरी जिंदगियां
जल उठेंगे मशाल
नए नए सपनों के
हर गली गली
हर शहर शहर में....

रोशनी का सपना
यूंही बेकार तो नहीं जाएगा
रोशनी भले ही मिट जाए
पर उसका सपना
एक दिन जरूर रंग लाएगा
........
........

उजाला दाखिल होगा दबे पांव
बंद अंधेरे कमरों में
और छोड़ जाएगा जाएगा निशान
किसी शरारती बच्चे सा
....

उजाला ढूंढ लेगा
कोई रास्ता
या चोर दरवाजा
फ़िर किसी खुशनुमा झौंके सा
रोप जाएगा खुशियों के जंगल
....

उजाले को जीना है
इस दुनिया में
अपनी ही शर्तों पर
उजाला लेगा किसी दिन
इस अंधेरी दुनिया से
अपने दमन का हिसाब !!
........
........

बचे रहेंगे कुछ ठूंठ, कुछ झाड़ियां
और मुठठी भर पेड़
जिन पर होंगे
कुछ खाली घोंसलों के ढेर
जिन्हें छोड़ कर
कब के उड़ चुके होंगे
पंछियों के दल
जंगलों के उजड़ने से पहले
........

पेड़ पंछियों और पुरनियों के किस्सों की
मद्धिम तान गूंजेगी कुछ दिन
जंगल के बाशिंदों के बीच
जो छूटे रह गए
या बिछुड़ गए भगदड़ के शोर में
और जो ढूंढ रहे हैं
बरसों से अपना घर
टूटती हुई सांसो और
खोए हुए सपनों के मलबों के बीच
........

पर
यकीन है इतना कि
कभी तो दिन बदलेंगे
और जंगल में फ़िर से
उग आएंगे
सदाबहार पेड़ों के झुंड के झुंड
और देर होने से पहले
और सब कुछ खत्म होने से पहले
लौटेंगे पंछियों के दल के दल
अपने अपने बसेरों में
........
........

सवालों की दुनिया
बड़ी बेतरतीब, बहुत उबड़खाबड़
कभी अर्थपूर्ण तो कभी उटपटांग
बेतुकी बातों एक सिलसिला भर
सारे रास्ते टेढ़े मेढ़े, कहीं फ़िसलनभरी काई
जोखिम भरे दुनिया की / एक दुर्गम यात्रा
डालती है खलल मन में
करती है बेचैन रूह को
बन जाता है / फ़ंसकर इसमें
हर कोई एक चक्कर घिन्नी
सवालों में छुपे होते हैं
रोमांच भरे नए खोजों का एक अंतहीन सिलसिला
हर गलत जवाब देती है कुंजी / किसी अगले सफ़र का
कभी उतावले कभी बेहद गंभीर
कभी गुदगुदाते कभी फ़ांस बन चुभते
सवाल किसी का भोला विश्वास / तो किसी की कुटिल चाल
सवालों के उतार चढ़ाव में छिपे
जीवन यात्राओं के विकास की पहेलियां
सवालों के धुंधलके भरे कगार से झांकते
भूले बिसराए इतिहास के पन्नों में दफ़्न
सत्य, अर्धसत्यों और मिथकों के साए
सवालों के मर्मभेदी प्रहार
कर देते हैं तहसनहस
सुरक्षा कवचों का हर चक्रव्यूह
सवालों की बंजर उसर धरती
सोख लेती है हर आंसू और आहें
सवालों की रोशनी में बुनती है जिंदगी
नित नए नए ख्वाब
........
........

किसे पता है आईने का सच
भला कौन जान पाया है
उस के अंतस की बात
आईने का क्या कसूर
गर छवि दिखे
उसमें अपनी
भौंडी और बेतरतीब
पर हर बार सजा पाए
बस वही एक बेबस और बेकसूर
बिंबो और प्रतिबिंबो की
चौतरफ़ा मार झेलता
सच झूठ मिथ्या छ्ल
सभी बातों का
निरीह मूक एक साक्षी
संसार के अन्यायपूर्ण बातों और मांगो से
त्रस्त घबराया बौखलाया
ढूंढता है कोई सूना अंधेरा कोना
जहां तक न पहुंचती हो
रोशनी की कोई नन्ही सी भी किरण
........
........

हर आती जाती सांस
उकेरती है / नए स्वप्न लहरियों का
अद्भुत तिलिस्मी संसार
हमारी उदास / अनमनी मनभित्तियों पर
भले ही न हो फ़ुर्सत
या बची हो सामर्थ्य
संसार की चकाचौंध से
धुंधलाई / निष्प्रभ आंखों में
उन्हें देख पाने की
....

जब / तब / बारंबार
टूटे / अधजले स्वप्नों का मलबा
अक्सर / सेंध मार
किसी चोर दरवाजे से
प्रवेश कर
धराशायी कर देता है
सभी वहमों के
सूक्ष्म महीन तानों बानों को
दबे ढके रहते है जिनमें
अक्सर / हम सब के संसार
....

फ़िर भी / कभी कभार
कौंध जाती है उनमें भी
रह रह कर
भूले बिसरे / आधे अधूरे सपनों के
बुझती चिंगारियों का क्षणिक उजास
...

जो ठहर जाता है / कुछ पल के लिए
उमड़ते / फ़ेनिल काल प्रवाह में
किसी झिलमिलाते प्रकाशस्तंभ सा
टेढ़े मेढ़े रास्तों के मकड़ जाल से
खोई हुई / रूठ कर नींद में डूबी हुई
मंजिलों का / पता / दिशा देता
फ़िर करता आह्वान / किसी नए सफ़र का
........
........



कैसी भी कर्कश धुनें हो गूंजती हमारी बेसुरी जिंदगियों में
संमदर तो उन में से भी एक खुशनुमा गीत बना लेता है
........

भले न हो सधी सधाई जिंदगियों में उसकी कोई खास जगह
संमदर जानता है सब कुछ फ़िर भी दिलों में किसी ख्वाब सा धड़कता है
........

रास्ता बदल लें लाख कतराकर लोग उसे भूल जाने की कोशिश में
संमदर मगर फ़िर भी हर मोड़ पर ठहर कर उनका इंतजार करता है
........

जवाबों की भूलभुलैया में न जाने क्यों अक्सर भटकते रहते है
लोग नहीं जानते कि सवालों के सही जवाब समन्दर के पास ही होते हैं
........
........

कभी कभी न जाने कैसे
क्या से क्या हो जाता है
जब मुश्किल हो जाता है
सही और गलत में फ़र्क करना
और कोई नामालूम शक
उठाता है सिर जब तब
डराता है रात बिरात
सुनसान सन्नाटे में
बजने लगता है गजर सा
घनघनाटा, टनटनाता
उकेर जाता है जाने
कैसे कैसे दुस्वप्न मनभित्तियों पर
शांत झील में डाल देता है खलल
आसमान धूसर हो जाता है/ तब
सूरज धुंधला जाता है
बुझने लगती हैं
तारों की भी रोशनियां
हरियाली भी देने लगती है ताप
सब कुछ जंगल हो जाता है!!
........
........



पी जाए हमारे भी हिस्से का जहर
नीलकंठ बन जाए कोई दूसरा
काश आ जाए कोई दूसरा
........

ऊबे बैठे है तमाशाई सब
चमत्कार दिखला दे कोई दूसरा
काश आ जाए कोई दूसरा
........

भेड़ें हैं चल पड़ेंगे फ़ौरन
बस रहनुमा बन जाए कोई दूसरा
काश आ जाए कोई दूसरा
........

पूजेंगे बाद में बुत बनाकर
शहीद अभी हो जाए कोई दूसरा
काश आ जाए कोई दूसरा
........

अंधेरा है पर हिम्म्त नहीं है हममें
आग चुरा कर ला दे कोई दूसरा
काश आ जाए कोई दूसरा
........
........


संभावना बची रहे
आने वाले समयों में
जिंदगियों में हमारे
हंसने की/ गाने की
रोने की/ शोकित होने की
बचपने की/ मूर्खताओं की
पागलपन की/ गल्तियों की
........

संभावना बची रहे
महज कंकड़ पत्थर
या तुच्छ कीट कीटाणु
निष्प्राण पाषाण/ या
बर्बर पशु बनते जाने के,
मनुष्य बने रहने की
........

संभावना बची रहे
इस आपाधापी/ कोलाहलमय
जीवनों में
आकाश की ओर ताकने की
और लहरों को गिनने की
हमारी उबड़खाबड़ जिंदगियों में
स्नेह, संवेदना एव करूणा की
कोमल कलियों के खिलने की
........

संभावना बची रहे
जीवनों के
खिलने की/ पनपने की
सपने देखने की
नई सृष्टि रचने/ बनने की
मनों के/ अंधेरे
सर्द/ सूने गलियारों में
सूरज के किरणों के
अल्हड़ ताका झांकी की
........

संभावना बची रहे
तमाम दुश्मनी और दूरियों को भूलकर
आपस में/ एक दूसरे के लिए
महज मूक दर्शक/ तमाशबीन बने रहने के
दर्पण और दीपक बनने की
हमसफ़र और रहनुमा बनने की
........

संभावना बची रहे
हमारी सुविधाभोगी, मौका परस्त
मतलबी, हिसाबी किताबी जिंदगियों में
कभी कभार, यूं ही
बेमकसद/ बेवजह जीने की
दूसरों को अपने किसी स्वार्थ सिद्धि हेतु
महज साधन या सीढ़ी सा
इस्तेमाल करने की बजाए
उन्हें भी खुद सा समझने की
........

संभावना बची रहे
कटु कर्णभेदी शोरगुल के
आदी/ अभ्यस्त हमारे मनों में
कोमल/ निशब्द/ शब्दहीन बातों के
पारदर्शी रूप छटा को
समझने/ पहचानने की
जुबान की दहलीज पर ठिठके/ सहमे
शब्दमाला से कोई सुंदर सा गीत पिरोने की
........

संभावना बची रहे
अर्धसत्यों/ षडयंत्रो
छल प्रपंचो के
काई पटे कीच में
डूबते/ उतराते
महज सांस भर ले पाने की
........

भागमभाग के जिन्न के
पंजो मे दबोची हुई जिंदगियों के
सांस थमने से पहले
मिले फ़ुर्सत पल भर को
भरपूर सांस ले
अपना अपना जीवन
जी पाने की
........

संभावना बची रहे
मिटने/ खत्म होने हम में
छोटे छोटे स्वार्थों के लिए
गिरते हुओं को रौंदकर
सबसे आगे निकलने की प्रवृत्ति का
दूसरे की कीमत पर
खुद को बेहतर सिद्ध करने का
........

संभावना बची रहे
आने वाले समयो में
अंधेरे अंतहीन ब्लैकहोल (श्याम विवर) में
गर्क होती जिंदगियों की विरासतों का
नक्षत्र/ नीहारिकाएं और
अनगिन रोशनी की लकीरें बन
अंतरिक्ष में जगमगाने का !!
........
........

कांचघर की दीवारों से घिरी
सुरक्षित/ आश्वस्त
साम्राज्ञी सी
निश्चिंत घूमती है दिन रात
अपनी छोटी सी दुनिया के
निश्चित से दायरे में
किसी कठपुतली सी
मौन/ निजी एकालापों में गुम
........

नहीं जान पाती
कि गुजर रही है करीब से
जिंदगी
किसी अनजानी सी धुन पर
थिरकती
जिसकी मंद होती हुई गूंज
कभी कर देती है बेचैन
कभी उदास !
........

कब में
निगल जाती है चुपचाप
कवच बन
कांचघर की दीवारें
हर पुल/ हर रास्ता
जिंदगी जिनके सहारे
सौंप जाती है
सबको अपने सपने
........

नहीं जान पाती
कहीं पहुंचने के भ्रम में
भटकती है बेखबर
अपनी छोटी सी दुनिया के
निश्चित से दायरे में
किसी कठपुतली सी !!
........
........



मन
किसी बिगड़ैल घोड़े सा
बारंबार निषिद्ध मार्गों पर
भाग जाना चाहता है सरपट
बदहवास लगाम थामे
सुनती हूं मैं
दूर कहीं ---
सूखे पत्ते का झड़ना
जमी हुई बर्फ़ का चटकना
और कर्कश कौओं का चिल्लाना !!



यूं ही बेवजह
बजता है / अब भी
पतझड़ राग
मन की सूनी दीवारों पर
........
यूं ही बेवजह
अनमनी सी टहलती है
सहमी हुई चाहें
नींद और जाग के दरम्यान
........
यूं ही बेवजह
उंगलियां तराश देती है
फ़िर से नया कोई बुत
भले ही पत्थर बने रहे वो
बरसों पूजने के बाद
........
यूं ही बेवजह
लौटा लेने को/ जी
चाहता है
बीते पलों का
दिलकश जादू ....!!

अपने अपने कारावासों के
अनायास ही कभी बन आए/ बंदी से हम
कभी अन्जाने तो कभी जानबूझकर
कैद की दीवारों में से
किसी अन्देखे से छेद से झांकती
धूप के नन्हें से टुकड़े का
ताजी हवा के हल्के से उस झौंके का
मात्र एक हिस्सा बनने की चाह लिए
पल भर के लिए ही/ शायद
निकले हैं कभी झिझकते/ ठिठकते
चौंकते, ठहरते से कभी
अपने कैद की परिधि से बाहर
पर दूसरे ही पल/ विवश सा
खींच लिया है कदमों को वापस
अपने बंद अंधेरे कमरों में
बाहर की तेज चकाचौंध भरी/ धूप से
घबराकर
जलन और तपन का
एक तीखा सा अहसास लिए
अन्जानी हवा में घुटन महसूसते
कैद की उन्हीं अंधेरी दीवारों के बीच
उसी रची बसी/ जानी पहचानी घुटन में
जो नितांत अपने से ही तो हैं....!

वेटिग फ़ार गोदो बनाम इंतजार का सफ़रनामा

हम किसलिए जीते हैं.... किसलिए.... हर वक्त किसका इंतजार रहता है नहीं मालूम.... और समूची जिंदगी इसी इंतजार में निकल जाती है. कभी लगता है जिंदगी कुछ और नहीं सिर्फ़ इसी इंतजार का दूसरा नाम है.... शायद " वेटिग फ़ार गोदो " के पात्रों की तरह हम सब भी न जाने सारी जिंदगी किसका इंतजार करते रहते है जो आने का वादा करके भी कभी नहीं आता.... और पूरी की पूरी जिदगी इसी बेतुके इंतजार में बीत जाती है.... पर इस इंतजार से मुक्ति भी तो नहीं है.... नहीं तो जीना कितना आसान हो जाता....

जो सामने है उसी को सच मान लेना.... जी लेना सोचे समझे विचारे बगैर.... सचमुच कई बार लोगों से ईषर्या होती है जिनकी भरी पूरी जिंदगियों में ऐसी बेतुकी मूर्खताओं के लिए कोई जगह नहीं होती.... जहां कोई तलाश, कोई भटकन/ यात्रा का नामोनिशान तक नहीं.... जिन जिंदगियों की नीच त्रासदी यही है कि इनमें कोई त्रासदी नहीं घटती.... न ही घटने की गुंजाईश हो शायद.... कौन जाने.... सुविधाओं/परेशानियों के परे कोई तलाश, कोई भटकन नहीं.... ?!

अतीत में एक छलांग

कभी कभी लगता है मानो कहीं दुबारा लौटना भी अर्थहीन/ असंगत/ बेतुका नहीं होता. शायद उस वक्त हम एक नई अंतर्दृष्टि नई समझ के साथ अतीत को "एप्रोच" करते है....और तब अतीत शायद हमें उतना अधिक क्रूर, कटु, बेतुका और अनसमझा नहीं लगता .... शायद अतीत की ओर लौटना इतना बेमानी और फ़िजूल भी नहीं होता....शायद उस वक्त तक समय या नियति हमें और हमारी अंतर्दृष्टि को कुछ और अधिक सुस्पष्ट एवं पैना कर देती है. उन्हें चीजों/ बातों के आर पार देखने लायक बना देती है ताकि हम उन सब चीजों/ बातों के महत्त्व को अच्छी तरह से जान/ समझ लें जो किसी वक्त हमें अबूझ और समझ के परे लगती थी और उन्हें सद् भाव/ करूणा के साथ समझकर अपनाएं, अपने जीवनों में उनका स्थान सुनिश्चित कर उन्हें स्वीकारें जिनसे हम निरंतर लड़ते रहे हैं....और उनका विरोध करते रहे हैं....

हां, अगर हम यह सब कर पाने में स्वयं को अक्षम या असमर्थ पाते हैं तब शायद हमने स्वयं को प्रकृति के खिलाफ़ जाकर, जीवन प्रवाह में बहने से इंकार करके खुद को इतना अधिक थका दिया होता है कि कुछ भी करने/ सोचने / समझने की शक्ति और सामर्थ्य चुक जाती है और किसी बेजान कपड़े की गुड़िया की तरह सिर्फ़ स्थितियों/ परिस्थितियों का शिकार ही बनते रहते हैं.... "विक्टिमाइज्ड" होते रहते है.... कहीं पर यह हमारा चेतन चुनाव होता है तो किसी स्तर पर अचेतन चुनाव....!

जब एक बार हम "स्व" से अपना ध्यान हटाकर अपनी दृष्टि सृष्टि/ ब्रह्मांड पर केंद्रित करते है तब हम अपने आपको बिलकुल क्षुद्र नगण्य और हीन पाते हैं और सृष्टि/ ब्रह्मांड की विशालता हमें आतंकित कर देती है क्योंकि हम स्वयं को उससे अलगा कर देख रहे होते हैं. जब हम स्वयं को उनके बीच रखकर और अपने अनूठेपन यानी " यूनीकनैस" को ध्यान में रखकर देखें तो शायद हमें यह समझ लेने मे आसानी रहे या कि हमें यह समझ में आए कि समूची सृष्टि/ ब्रह्मांड में हमारे स्वयं का क्या स्थान है और हमारी क्या भूमिका हो सकती है.

इन सबके साथ यह भी जान लेने में ही भलाई है कि हम चीजों/ परिस्थतियों को समझने / सुलझाने मे रूचि रखते हैं या उन्हें उलझाकर सिर्फ़ उन्हें तोड़ फोड़कर नष्ट भ्रष्ट करने में. इन्हीं प्रश्नों के उत्तर पर समस्त मानवजाति की उत्तरजीविता यानी " सर्वाइवल " का रहस्य टिका हुआ है. क्योंकि अंतत: हमारे समस्त कार्यकलाप और कार्य व्यवहार हमारे साथ साथ हमारे आस पास के वातावरण को भी प्रभावित करते हैं....

किसी भी चीज को तोड़ना वहां पर तो एक अंतिम विकल्प हो सकता है जहां जोड़ने/ सुलझाने की कोई संभावना ही नहीं बची है पर महज तोड़ने/ नष्ट करने के लिए किसी चीज को तोड़ना/ नष्ट करना केवल इस वजह से कि वो आपके मन मुताबिक नहीं है शायद उचित नहीं है.

सृष्टि को बेहतर बनाने अथवा बिगाड़ने में हमारी कितनी बड़ी या नगण्य भूमिका हो सकती है और इस सबके क्या परिणाम निकल सकते है बगैर यह जाने हम बेमतलब बेतुकी अर्थहीन लड़ाईयों में खुद को इतना अधिक थका डालते है कि अपनी समस्त संभावनाओं पर झाड़ू फेर देते हैं और हर बात का नियति या समय पर दोषारोपण करके खुद साफ़ बच निकलते हैं.

रिश्तों के चक्रव्यूह ४

हमारा सारा ध्यान सिर्फ दूसरे की ओर लगा रहता है....उस के दोष कमियां और खामियां निकालने और उसे तुच्छ हीन और नाकारा साबित करने की सदा कोशिशें चलती रहती है क्योंकि तभी स्वयं को सही संपूर्ण और परफ़ेक्ट ठहराया जा सकता है. हमारी दृष्टि या ध्यान कभी अपने अंदर तक नहीं जाती या मुड़ती.... दूसरे के आचार व्यवहार क्रियाकलाप से हम दुखी हैरान परेशान और कभी कभी खुश भी होते रहते हैं. चाहे हमारे स्वयं की कितनी ही हेय दयनीय दशा क्यों न हो हम दूसरे को तकलीफ़ में कष्ट में पीड़ा मे देख कर खुश होते हैं....दूसरों का सुख या खुशी हमें परेशान पागल कर देता है.... किसी के साथ सहभागिता रखने से हम बचते हैं क्योकि उस के सुख दुख में शामिल होना इन्वाल्व होना है और इन्वाल्वमेंट के अपने खतरे हैं जिनसे अक्सर हम नहीं जूझना चाहते.... इन्वाल्वमेंट या लगाव अपने साथ कई दायित्व भी लाता है जिन्हें हम अपने ऊपर ओढ़ने से बचते और कतराते हैं क्योंकि तब हम अपनें चारों ओर घटने वाली बातों के प्रति अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते.

रिश्तों के चक्रव्यूह ३

कभी कभी लगता है कि संबंधों में सब एक दूसरे को अपने मुताबिक महज " फ़िट " करना चाहते है " फ़िट " होना नहीं चाहते.... यही इन संबंधों की त्रासदी है. संबंधों का अर्थ एक दूसरे को करीब लाकर उन के बीच फ़ैली अंतहीन दूरियों को पाटकर उन्हें जोड़ना नहीं वरन एक दूसरे को तोड़ना भर रह गया है. जब कोई किसी दूसरे के हिस्से का सांस नहीं ले सकता तो किसी दूसरे की नियति तक का मालिक या रचियता होने का दावा कैसे कर सकता है?

संबंध साथ भर है एक अहसास मात्र.... अपनी अपनी कमियों/ खूबियों के बावजूद एक दूसरे से जुड़ना, जुड़कर साथ चलना/ रहना न कि कमियों / खूबियों को आरोपों की तरह एक दूसरे पर थोपना और लगातार थोपते रहना.... पर संबंधों का जब " इस्टिट्य़ूस्नालाज़ेशन " हो जाता है तो संबंध बचे नहीं रह सकते....बचता है सिर्फ़ दिखावा.... "शिमेरा" या एक " फ़ार्श "!

क्या दूसरा मात्र तुम्हारा " रिप्लिका " है कोई प्रतिमूर्ति या गीली मिट्टी का लौंधा मात्र जिसे तुम चाहे जो आकार / रंग / रूप दे दो. दूसरे का क्या कोई अपना अलग पृथक स्वतंत्र अस्तित्व नहीं....

संबंध दूसरे को भावनात्मक शारीरिक मानसिक और आत्मिक रूप से शोषित करने का मात्र एक जरिया है. यह एक दूसरे के साथ " इंट्रएक्ट " कर एक दूसरे की बेहतरी या आत्मिक भरपूरी समृद्धि के लिए नहीं वरन एक दूसरे को दमित या शोषित करने में प्रयुक्त होता है. दूसरा हमेशा बाहरी या अजनबी बना रहता है....परिधि के परे.... वो कभी आपके अस्तित्व का केंद्र नहीं बन पाता.... कभी आपका हिस्सा नहीं बन पाता.... दोनों मिलकर एक एकीकृत इकाई नहीं बन पाते....पर भला क्या ऐसा वाकई संभव नहीं है कौन जाने?!

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