अग्निपाखी

जीवन के संघर्षों के अग्निकुंड में जलते हुए अपनी ही राख से पुनर्जीवित होने का अनवरत सिलसिला....

काश किसी रोज ऐसी एक सुबह आए
और महज एक दिन के लिए नहीं
वरन् हमेशा के लिए सबके जीवन में बस जाए
शामिल हो जिंदगी के जुलूस में हाशिए के परे जीने वाले
और अविश्वास की धुंध में लिपटे हमारे जीवनों में
उम्मीद और विश्वास की उज्जवल रोशनी जगमगाए.

काश किसी रोज ऐसी एक सुबह आए
जब अन्देखती वीतरागी आखों में भी
हर पल नई नई स्वप्न लहरियां झिलमिलाएं
थके हारे टूटे पराजित हॄदय भी
अपने दर्द से मूक अधरों से
उमंग और उल्लास के चमकीले गीत गाएं.

काश किसी रोज ऐसी एक सुबह आए
जब हमारा जीवन एक नई सृष्टि बन जाए
हमारी उदासीन हॄदयहीन दुनियाओं में
प्रेम का समंदर अनंत काल तक लहराए
हमारी बेसुरी कटु कोलाहलमय जीवनों में/ वो प्रेम
किन्हीं सुमधुर संगीत लहरियों की बारिश बन बरसे.

काश किसी रोज ऐसी एक सुबह आए
जब देर से रूके थमे समय की भी चाल बदल जाए
जीवन की परिधियों के परे परिक्रमा करती जिंदगियों को
उम्मीद और परिवर्तन की ठंडी बयार हौले से छूकर गुजर जाए
जीवन की पटरी से उतरी हुई सभी जिंदगियां भी
सही सलामत अपनी अपनी मंजिलों तक पहुंच जाए.

काश किसी रोज ऐसी एक सुबह आए
जब हर अंत की हो एक नई और सुंदर शुरूआत
जिंदगी तो चलती रहती है अनवरत अविराम
देती है असंख्य अवसर बदलने के खुद को और अपने जीवन को
गतिहीनता के भंवर मे छटपटाते जीवन भी सहेज उन सौगातों को
सब कुछ को भूल आगे बढ़ने या पीछे छूटे जीवन को लौटकर सहेजने का बल पाए.

काश किसी रोज ऐसी एक सुबह आए
जब अन्याय और शोषण से जूझते/बुझते जीवनों का अंधेरा छट जाए
उनकी गुंजलक भरी दमघोटूं जकड़ से वे सभी मुक्ति के स्वप्न सजाए
अन्याय और शोषण से लड़ते लड़ते थक न जाए मुठठी भर लोग
टूट न पाए विरोध की कड़ी, उनके साथ क्यों न शामिल हो जाए हम सभी/ कि घबराकर
ढह जाए जल्द ही अन्याय और शोषण के आतंक का निरंतर बढ़ता हुआ साम्राज्य.

काश किसी रोज ऐसी एक सुबह आए
जब अपने घरों को अपने कंधों पर टांगे घूमते दर-ब-दर
सभी बेघर निर्वासित विस्थापित मजबूर बेबस लोग
जो थक गए है अजनबी दुनियाओं में भटकते भटकते
कि आस न टूटे उन सूने घरों की जो देखता है सपने उनके वापसी का/
खत्म हो प्रतीक्षा, उनकी धरती उनके आकाश की जो बाट जोहता है सबकी आज भी.

काश किसी रोज ऐसी एक सुबह आए
गरीबी भुखमरी अशिक्षा और बेरोजगारी के अभिशापों से
अकेले ही जूझती लाचार बेबस जिंदगियां
बने न मात्र किसी भी सांख्यिकी का महज एक हिस्सा
उन्हे भी मिले सम्मानजनक और गरिमामय जीवन का अधिकार
तिल तिलकर जीने मरने के अनवरत क्रम में कुछ तो बचा रहे जीने लायक.

काश किसी रोज ऐसी एक सुबह आए
पल पल उजड़ती प्रकृति के विनाश का सिलसिला थम जाए
बनकर न रह जाए महज वो किस्से कहानियों की दुनिया
बचा रहे उन हरे भरे जंगल पर्वत पहाड़ और नदियों का संसार
सबके लिए बचा रहे हरियाली का सपना कोयल और मैना के गीतों सा
कि कहीं गुम न हो पेड़ पत्तियों पंछी और मछलियों का पारदर्शी झिलमिलाता संसार सपनों तक से.

काश किसी रोज ऐसी एक सुबह आए
दिन-ब-दिन सिकुड़ती दुनिया और सिकुड़ते दिलों के बीच हम मनुष्य बने रहने का मोल चुकाएं
बनाएं हम मेल प्रेम सद्भावना और संवेदना और सहिष्णुता के ढेरों पुल/ दूरियों को पाटने हेतु
और टूटती बिखरती इस दुनिया को प्रेम और अपनेपन से सहेज संभाल /रखें बचा कर
ये दुनिया आने वाले सभी बच्चों के लिए जिन्हें मिले एक स्वर्ग सी सुंदर दुनिया
हमारे बाद भी जिसमें वे मिलजुल कर रहें और बढ़ें मिलकर हंसते गाते सभी स्वर्णिम भविष्य की ओर.

***
*******
***

काल की दहलीज पर ठिठका हुआ ये साल
बुझते मन से देख रहा है उस भीड़ को जो
घक्का मुक्की करते गुजर रही है सामने से
उसे अजनबी आंखों से घूरते
बड़ी ही हड़बड़ी और जल्दबाजी में.

उसे याद आते हैं वो पल
जब वो उन लोगों के जीवन में
सांस और धड़कन
संगीत और स्वप्न बन
रच बस गया था
उनके सुख दुख का
हिस्सा बन गया था.

नियति ने तो भेजा था
अपना एक दूत बना कर
खट्टे मीठे सौगातों की पोटली थमाकर
पर पल भर के लिए
मानों सब कुछ भूल गया था
उसका मन भी शायद
जीने को मचल गया था.

बिछुड़ने का दर्द समेटे
ढूंढता है इस वक्त
कोई ऐसा दिल
जो सहेजेगा
उस की यादों को
और करेगा ढेरों बातें
उसके बारे में
धुधलाने या गुमने
न देगा उसे
या उसकी यादों को.

उसे नहीं मालूम कि
उसी भीड़ से निकलेंगे
ढेर सारे कई ऐसे लोग
जो बाद में, काफ़ी बाद तक
उसे याद करेंगे
और करेंगे उसकी बातें
अपनों से या अकेले में
जैसा कि लोग अक्सर करते हैं
सब कुछ बीत जाने के बाद.

क्योंकि अतीत भी उतना ही प्रिय है उन्हें
जिसे जीते है रोज ही सपनों में किस्सो में
जितना लगाव है भविष्य से
जहां जन्मती है नई उम्मीदें और नए नए सपने
और समय के पुल पर से गुजर कर
वे भी तो सभी दुनियाओं में रखते हैं
कदम साथ साथ
सब कुछ को समेट
परिक्रमा करते हैं
अपनी अपनी दुनियाओं में.

उसका बुझा हुआ मन
थोड़ी देर बाद
लोगों से मिले हुए
प्रेम से उमड़ते हुए
अपने प्याले को थाम
शामिल होगा उस जश्न में
और खुशी खुशी लेगा विदा
और फ़िर से दाखिल होगा
उन की जिंदगियों में
एक नया साल बन कर!!

........
........

क्रिसमस के अवसर पर कुछ अनुदित कविताएं...

१.
लौटता है बैतलहम में मेरा दिल
-अज्ञात-


लौटता है बैतलहम में मेरा दिल
हर साल क्रिसमस के मौके पर
जब इंतजार करती है दुनिया
चरनी में जन्मे राजा का
जहां झुके हुए हैं स्वर्गदूत
मैं करती हूं यात्रा
उन ज्योतिषियों के साथ
करने राजा की आराधना
और सोचती हूं आश्चर्य से
मैं क्या उपहार ले जाऊं
हम सब जो इतने निकम्मे हैं
बा्लक ख्रीष्ट को
आखिर कौन सा उपहार भेंट करूं
शायद उसके बि्छौने के लिए कोई कंबल
या शायद कोई चटकीला सितारा
या सुनाऊं उसे कोई कविता
और अगर वो रो पड़े/ तो
शायद मैं थाम लू उसका हाथ
या गाऊं कोई लोरी
हर बरस लौटता है दिल मेरा
बैतलहम में क्रिसमस के दिन
कि चरनी के पास जाकर दंडवत करूं
और बहाऊं खुशी के आसूं

*****

२.
क्रिसमस का तारा
-मेरी गैरेन-


बहुत दिनों पहले उस रात्रि में / जब
क्रिसमस के तारे से जो चमकी थी रोशनी

इस क्रिसमस की रात्रि में तुम पर चमके
और तुम्हारे चेहरे को प्रकाशित करे
काश कि वो तुम्हारी आंखों से दमके
और बस जाए तुम्हारे मन में
और तुम्हारी आत्मा में उसकी आंच झिलमिलाए
एक थके हुए संसार को जो शांति दी थी उसने
आज तुम्हारे दिल को वो खुशियों से भर दे.

*****

३.
प्रथम रोशनी
-स्टीफ़ेन लीक-


घर से दूर सितारा, अनिच्छा से
आकाश की खिड़की से बाहर धकेले जाने के बाद भी
वो ठहरा हुआ है सुबह की चौखट पर
कहानियों की रोशनी का इतिहास पलटते हुए. दुबारा से.

धीमे से, गिराता है अपने उपहार
साधारण वैभव, खुशियों से छलकता हुआ
उसकी उष्मा, हाथ मे थामें हुए एक शीशे की रूह की .

और जैसे प्रार्थनाओं द्वारा दिन बन जाता है खास
वो गिरेगा.
गिरेगा अपने ही ख्वाब में लौटकर
वहां वो गाएगा
अपनी उपस्थिति से
लिपटे हुए दिन को खोलते हुए.

*****

४.१
क्रिसमस के गीत
-क्रिस्टीना रोसेटी-


क्रिसमस में है अंधकार
दुपहरी की चकाचौंध से भी अधिक द्युतिमान
क्रिसमस में है ठंडक
जून की गर्मी से भी उष्म
क्रिसमस में है सौंदर्य
दुनिया में मौजूद खूबसूरती से भी बढ़कर
क्योंकि क्रिसमस लाता है यीशु को
जो उतर आया धरती पर हमारे लिए

धरती बजाओ अपना संगीत
पंछी जो गाते है और घंटिया जो बजती हैं
स्वर्ग के पास है मेल खाता हुआ संगीत
जिसे जल्द ही सब देवदूत मिलकर गाएंगे
धरती तुम पहन लो बेदाग बर्फ़ की
अपनी सबसे श्वेत
दुल्हिन की पोशाक
क्योंकि क्रिसमस लाता है यीशु को
जो उतर आया धरती पर हमारे लिए

*****

४.२
क्रिसमस के गीत
-क्रिस्टीना रोसेटी-


प्रेम उतर आया क्रिसमस पर
बेहद प्यारा, दिव्य अलौकिक प्रेम
प्रेम जन्मा था क्रिसमस पर
तारे और देवदूतों ने दिए थे चिन्ह

पूजते हैं हम देवत्व को परमेश्वर को
देहधारी प्रेम को, दिव्य प्रेम
हम अपने यीशु को पूजते हैं
पर किससे मिलेंगे अब वो चिन्ह ?

प्रेम ही होगा हमारा चिन्ह
प्रेम बने तुम्हारा और प्रेम बने मेरा
प्रेम हो परमेश्वर से और सभी मनुष्यों से
प्रेम हो प्रार्थना और सौगात और चिन्ह के लिए

*****

५.
क्रिसमस की सुबह का संगीत
-अन्ना ब्रोन्टे-


मुझे पसंद है संगीत... पर उसकी तान कभी नहीं
जो जगाए मन में ऐसे दिव्य हर्षातिरेक
जो शोक को करे कम
और पीड़ा को हर ले
और मेरे इस विषादपूर्ण दिल को झकझोर दे--
जिसे हम सुनते है क्रिसमस की सुबह में
शिशिर की सर्द हवाओं पर सवार होके
यद्यपि अंधकार का साम्राज्य कायम है अभी
और कई घंटे बाकी है सुबह होने में
दुस्वप्नों से या गहरी नीदों से
वो संगीत हौले से जगाती है हमें
वो किसी देवदूत के स्वर में पुकारती है हमें
जागने, आराधना करने और आनंद मनाने के लिए

उस मनोरम सुबह का स्वागत उल्लास से करने के लिए
जिसका देवदूतों ने अरसा पहले किया था स्वागत
जब हमारे उद्धारकर्ता ने जन्म लिया था
स्वर्ग की रोशनी को धरती पर लाने के लिए
कि अंधकार की ताकतें छंट जाए
और धरती को मौत और नरक से छुटकारा दिलाने

उस पावन राग को सुनते वक्त
हर्षातिरेक में डूबी मेरी रूह
उड़ान भरती है काफ़ी ऊंचाईयों तक
ऐसा प्रतीत होता है कि मैं सुन रही हूं उन गानों को
जो खुले आकाश के तले गूंज रही हैं
जिन्होने जगाई थी वो स्वर्गीय आनंद
उनमें जो रात में अपने झुंड की देख भाल कर रहे थे

उनके साथ मैं मनाती हूं उसका (प्रभु का) जन्म
परमेश्वर को ऊंचे में हो धन्यवाद
धरती में शांति और मेल होवे
हमें दिया गया है उद्धारकर्ता राजा
परमेश्वर अपने लोगों को अपनाने आया है
और शैतान की शक्ति को पराजित कर दिया है.

एक निर्दोष परमेश्वर पापी मनुष्यों के लिए
उतरता है धरती पर कष्ट सहने और लहुलुहान होने के लिए
नरक को अपना साम्राज्य अब छोड़ देना चाहिए
और शैतान को अब मान लेना चाहिए
कि ख्रीष्ट ने आशीष देने का अधिकार कमा लिया है.

अब पवित्र शांति मुस्करा ले स्वर्ग पर से
और धरती से फ़ूट निकलेंगी स्वर्गीय सच्चाई
कैदी के बंधन टूट गए है अब
क्योंकि हमारा उद्धारकर्ता हमारा राजा है
और जिसने मनुष्यों के लिए अपना लहू बहाया
वो हमें घर वापस ले जाएगा परमेश्वर के पास

*****

६.
मोमबत्ती से रोशन दिल
-मेरी ई लिंटन-


संसार के किसी कोने से इस सर्द रात्रि में
फ़िजाओं में गूंजती घंटियों का शोर सुनाई देगा तुम्हें
क्रिसमस ने फ़ैला दी है चारों ओर सब कुछ को समेट लेने वाली रोशनी
जिसे दूरियों के बावजूद हम बांट सकते है आपस में

तुम भी गा रहे होगे जैसे मैं गा रही हूं इस वक्त
उन चिरपरिचित गानों को जिन्हें हम अच्छे से जानते हैं
और अपने वहां के आसमान में तुम्हें दिखाई देंगे यही सारे सितारे
और उस चमकीले टूटते हुए सितारे से मांगोगे कोई दुआ

याद करूंगी तुम्हें और सजाऊंगी मैं क्रिसमस ट्री
जिसकी ऊपर वाली डाली में टंगा होगा एक चमकदार सितारा
मैं वहां टांगूगी विश्वास की पुष्पमालाएं जिसे देख लें सब लोग

आज की रात मैं झांक रही हूं अपने समय (अभी और अब)के परे
और जब तक रहना पड़े हमें अलग अलग
मैं दिल में मोम बत्ती की लौ जलाए रखती हूं

*****

७.
-अज्ञात-


रोशनी की सौगात है मोमबत्तियां
इक नन्हा सूरज, एक तारे का कतरा
रात्रि का कोई भी नर्तक
नहीं नाच सकता आनंद से इस कदर लबालब भरके
शांत झिलमिलाती नन्हीं आत्माएं
हरेक में है एक झलक उस की जो हम सभी हैं
जगमगाते हुए निष्पाप मासूम और पवित्र.

***
*****
***

कुछ बातों को
उम्र लग जाती है
सामने आने में
सही वक्त और सही स्थान का
इंतजार और चुनाव करते करते
थक हारकर पस्त हो चुकी बातें
समय आने तक
लुंज पुंज दशा में
खुद अपना ही
मजाक बनकर रह जाती हैं
वो सारी बातें
........

परत दर परत
अर्थों की खोलती वो बातें
गुम हो जाती हैं
हवाओं में
अस्फुट अस्पष्ट सा
शोर बनकर
जब मिलता नहीं
कोई भी इन्हें
सुनने समझने वाला
........

कुछ बातें
हमेशा जल्दबाजी
और काफी हड़बड़ी में
होती हैं
बाहर निकलने के लिए
अपनी बारी तक का
इंतजार नहीं करती
बात बे-बेबात पर
खिसियाकर झल्लाकर
तो कभी इतराकर
या इठलाकर
निकल ही पड़्ती हैं
दुश्मन को धूल चटाने
सब के सामने उसे
नीचा दिखाने
........

शत्रुतापूर्ण ईर्ष्या से भरी
कलह क्लेश की चिंगारियां उड़ाती
अपने शिकार को विष बुझे बाण चुभोकर
करती है
उस अभागे का
गर्व मर्दन
........

कुछ बातें
कोमल दूब सी
उजली धूप सी
भोले विश्वास सी
और पुरखों की सीख सी
जो बहती है ठंडी बयार सी
या बरसती है भीनी फुहार सी
........

कुछ बातें होती हैं
इतनी ढकी छिपी
कि उनकी आहट तक से
रहते है बेखबर उम्र भर
और जान पाते है उनका मायाजाल
उनके बाहर आने पर ही
जब वे तोड़ कर रख देती हैं
एक ही पल में
कितने ही रिश्ते या दिल
या जोड़ देती हैं
एक ही झटके में
टूटे हुए रिश्ते या घर
........
........

१.

धड़कन

बूढ़े बरगद की
निश्चल उच्छवास में
कैद है
पीड़ा और संताप से कराहती
धरती के
धड़कते दिल की
नन्हीं सी धड़कन
........
........

२.

आमंत्रण

हर
परिवर्तन
एक अवसर
एक आमंत्रण
जिंदगी के
उत्सव और नृत्य में
शामिल होने को
जिंदगी स्थिर नहीं
दायरों में
घूम रही है
अपने ही
नृत्य में
मस्त और डूबी
........
........

गगनचुबियों में फ़ंसा चांद
भौंचक्का, कुछ घबराया सा
ताकता है इधर उधर
खिन्न हो फ़िर चल देता है यूं ही
किसी भी ओर
अकबकाया अनमना सा
........

जैसे पहली बार आया हो
किसी छोटे से गांव से चलकर
इतने बड़े शहर में / और
जतन से सहेजा पता सामान सहित
किसी ठग ने चुरा लिया हो
शहर पहुंचते साथ ही
........

रात रात भर उंघती
गगनचुबियों की कैद में छटपटाता
अनमना सा चांद
चुपके से आंख बचा
झांक रहा चुपचाप
किसी नए बनते इमारत के
ऊपर तक उठती
स्टील गर्डरों के छेद में से
........

नीचे बिछी लंबी काली
सड़कों पर
दूर तक रोशनियों का झुरमुट
तब ऐसे में
कौन पूछे उसे भला?
........

टिक कर किसी दीवार से
थका हुआ चांद
सुस्ताता/ उंघता है
यहां कैसे रूक पाए अब
सोच रहा देर तलक
चांद पगलाया सा
किसी को फ़ुर्सत या
जरूरत ही नहीं है अब शायद
........

इससे तो अच्छा
गांव का गंदला पोखर ही सही
देखने को मिल तो जाती थी
अपनी सूरत
बदरंग / बेकार ही सही
पर होती तो अपनी ही
........
........

बरसों से जीर्ण शीर्ण
सूने अंधेरे गलियारों में
घूम टहल रहे हैं वे
जहां तहां बिखेरते
बेवजह बातों के छिलके
अपनी किसी दुनिया में गुम
पल भर को चकित/ मुग्ध
निहारते उन खंडहरों को
जैसे जग पड़े हों सोते से
फ़िर उबासी का चुइंगम चबाते
निकल पड़ेंगे बाहर किले से
लौट जाने अपनी अपनी दुनियाओ में
........

आखिर को तो/ महज
सैलानी ही हैं वे
कभी भूले भटके
करेंगे याद
दीवारों पर खुदे
उन भूले बिसरे चित्रों को
पच्चीकारी/ कारीगरी को
और फ़िर भूल जाएंगे
किसी रोचक किस्से सा
........

स्मृ्तियों के चमगादड़
आशंकित/ आतंकित से
निहारेंगे भर
उन टेढ़ी-मेढ़ी
रोशनी की लकीरों को
जिनके परे दफ़्न हैं उनकी जिंदगियां
........
........

मची है खलबली चांदनी की महफ़िल में,
सुना है आ पहुंचा नजदीक काफ़िला सूरज का.
........

मिटने से लगे है सदियों पुराने दायरे अब अंधेरों के,
जबसे होकर गुजरा है बस्तियों से काफ़िला सूरज का.
........

अंधेरों में जो घिरे बैठे थे खोए खोए,
ढूंढने आया है खुद चलकर उन्हें काफ़िला सूरज का.
........

लेके आया है वो एक समंदर रोशनी का,
जो भी डूबेगा उसी का हो गया काफ़िला सूरज का.
........

कैद कर लाया है वो रफ़्तार एक बवंडर का,
अब न रूकेगा चल पड़ा है जब काफ़िला सूरज का.
........

तिनकों से उखड़ जाएंगे जड़ समेत ये बरगद सारे,
रूख हवाओं का जब बदल देगा काफ़िला सूरज का.
........
........

आंसुओं का
जब
सितारों सा
जगमगाने का
समय आता है
तो काल भी
कुछ पल के लिए
ठहर और
थम जाता है....
गुमनाम कोनों से
निकलकर
जब आती है
आंसुओं की फ़ौज
तो
आसमान का
सूना आंचल भी
कुछ पल के लिए
रोशनियों की
जगमगाहट से
दमक उठता है
........
........

रोशनी की नदी


शून्य के केन्द्र तक का सफ़र किस कदर आंसुओं असफ़लता और अकेलेपन से भरा है, इसे वही ठीक से बता सकता है जो कि उन कठिन दुर्गम मार्गों से गुजरा है, और उनका साक्षी भी रहा है. पर उनके जीवनों के अनुभव हमारे जीवनों को कुछ अधिक समृद्ध और सुन्दर बना देते हैं. वे हमें जीवन के उन आयामों और पक्षों से हमारा साक्षात्कार कराते है जिनकी कल्पना अबसे कुछ पल पहले तक असंभव प्रतीत हो रही थी. उन्हें, उन लोगों ने अपने अदम्य साहस और अपूर्व हौसले और आत्मविश्वास के बूते संभव और साकार कर दिखाया और कृष्ण पक्ष के अंधेरी रातों का उज्जवल आयाम लोगों के समक्ष रखने का जोखिम उठाया जिसे लोग अक्सर अन्देखा करते है और जो अंधकार को सिर्फ़ बुराई का गढ़ या पर्याय मानते रहे हैं. पर अंधकारमय जीवनों में भी छुपे हैं कल्पनातीत संभावनाओं से सृजित सुन्दर सपनों के इन्द्रधनुषी पुलों व सेतुओं के अनगिन जाल जो घने कोहरों के धुंधलके में डूबी जिंदगियों में विद्युत बन उजास फ़ैलाते हैं और न जाने कितनी ही जिंदगियों को रोशन कर जाते हैं.

साधारण लोगों की असाधारण कहानियों के सिरे गुमनामी के गर्त में समा जाते हैं, हम सबकी उपेक्षा, उदासीनता और उत्साह हीनता के बदौलत जिन पर एक से एक बहानों की लीपापोती करके अपने उत्तरदायित्व से पिंड छुड़ा लेते हैं, और इस तरह अन्जाने में ही हम रोज ही अपने मानव बने रहने के उत्तराधिकार को ठुकराते और गंवाते है. ऐसे कर्मठ और जुझारू लोगों को अभावों, उपेक्षा, उपहास, उपालंभ और तिरस्कार की अग्नि जलाकर राख में तब्दील नहीं करती बल्कि उन्हें रोशनी के एक अजस्त्र प्रवाहमान नदी बना देती है, जिसकी रोशनी में आज भी साधारण लोग अपना जीवन बिना किसी कड़वाहट के हंसी खुशी बिता देते है.

‘जीरो वॅाट’ की फीकी बुझी रोशनी वाली जिंदगी का बोझ कमजोर कंधों पर डाले अपने क्लांत हाथों से हांफते कराहते चोटी तक पत्थर पहुंचाने के प्रयत्न में जुटे हुए हैं सदियों से अभिशप्त ‘सिसिफस’ के वंशज... यह जानते हुए भी कि चोटी पर पहुंचते ही पत्थर नीचे की ओर लुढ़क पड़ेगा पर उन्हें पत्थर को चोटी पर पहुंचाना ही है चाहे जो भी हो. इतना धैर्य इतनी कर्मठता शायद उन्हें इसीलिए ही मिली है ताकि वे समूचे संसार का बोझ बिना किसी शिकवे या शिकायत के अपने ऊपर उठा लें और बिना किसी प्रतिफल की इच्छा किए अपने छोटे से संसार में मगन रहें इस अनास्था की महारात्रि में.... प्रज्जवलित दीपों की तरह..... किन्हीं दीप स्तंभों की तरह.....

मेरे पिताजी ने जिंदगी के उतार चढ़ाव भरे हर सफ़र को सहज भाव से जिया. अपने परिवेश के प्रति संवेदनशीलता और सजगता ने उन्हें पारिवारिक जीवन के साथ साथ सामाजिक सरोकारो से भी जोड़े रखा. आज भी पक्षाघात के शिकार होने के बावजूद भी उन की संघर्षरत मानसिकता की लौ मद्धम नहीं पड़ी है. सब कुछ के बावजूद उनका सहज सरल और रागात्मकता भरा जीवन मेरा प्रेरणास्रोत रहा है.

मैं परमेश्वर पिता से उनके जीवन में एक और साल बढ़ाने के लिए धन्यवाद के साथ, उनकी लंबी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हुए, अपनी दो कविताएं उन्हें समर्पित करती हूं.


गिद्धों और सियारों की टोली से....

खबरदार
अभी नहीं हुआ है सब कुछ खत्म
अभी तो है जिंदगी से जंग बाकी
अभी तक नहीं टूटी है सांसे
अभी तो है थोड़ी सी आस बाकी
........

अभी इन बूढ़ी आंखों में आग है बाकी
अभी बूढ़ी हड्डियों में दमखम है कायम
इन बुझती आवाजों में ललकार है बाकी
भले ही हो टूटी फूटी हमारी तलवारें
पर फ़िर से युद्ध लड़ने को
उनमें झंकार और टंकार है बाकी
........

हमारे बच्चे किसी के गुलाम नहीं
राजसिंहासन के उनके दावे अभी है बाकी
अभी वे थक कर सोए है जरा देर को
बिसात पर उनकी चाल अभी है बाकी
........
........

रोशनी का जंगल

बिखरे हैं
बेतरह उलझे / अंधेरों के झाड़ झंखाड़
उखाड़ उन्हें रोप दूंगी अब मैं
हर तरफ़ / रोशनी की बेलें
और तब / फूटेगी यहां वहां
कली.... कली.... रोशनी की डली
उग आएगा चारों ओर / एक
रोशनी का जंगल !
........
........

दीपावली की शुभकामनाएं

इस ज्योति पर्व का उजास
जगमगाता रहे आप में जीवन भर
दीपमालिका की अनगिन पांती
आलोकित करे पथ आपका पल पल
मंगलमय कल्याणकारी हो आगामी वर्ष
सुख समृद्धि शांति उल्लास की
आशीष वृष्टि करे आप पर, आपके प्रियजनों पर
........
........

रोशनी को आखिर
क्या मिलता है यूं
जीवन भर जलकर....

अंधेरों के साजिशों
और षड्यंत्रों के साए तले
थर थर कांपता रहता है
हर पल
रोशनी का नन्हा सा वजूद....

रोशनी चाहे तो
पा सकती है
अपनी तमाम मुश्किलों से निजात
सिर्फ देना भर है उसे
साथ अंधेरों का
हर बार, लगातार....

पर यह सब तो है
रोशनी की फितरत के खिलाफ़
वो क्यों चले चालें
और किस के लिए
बिछाए जाल....

जबकि वो खुद है
एक साफ और चमकदार
शीशे की मीनार....

विश्वासघात और षड्यंत्रों की
चौतरफा मार झेलती
रोशनी का टूटा हुआ दिल
ठाने बैठा है जिद
जूझने का
अंधेरों से मरते दम तक....

भले ही
लड़ना पड़े
अकेले और तन्हा....

क्योंकि, आखिर
अंधेरों की हुकुमत भी
भला कब तक
और क्यों कर चलेगी
उस की सल्तनत भी तो
आखिर कभी तो ढहेगी और खत्म होगी....

एक समय तो
ऐसा भी आएगा
जब हर दरार और कोना
भी जगमगाएगा
उस वक्त
अंधेरा खुद अपनी ही मौत
मर जाएगा....

उखड़ जाएंगे पैर
उसके सब सिपहसालारों के
और जिन्होंने भी
दिया था साथ अंधेरे का
वे सभी
रोशनी के बवंडर के सम्मुख
तिनकों से बिखर जाएंगे....

अंधेरों के सामने अभी
रोशनी
लाख कमजोर और लाचार ही सही
पर हौसला और उम्मीद
किसी एक की बपौती तो नहीं....

जिसकी डोर थामे
देखते हैं दबे कुचले लोग
सपने
आने वाले सुनहरे दिनों के....

यही तो देता है
हिम्मत और ताकत
रोशनी को भी
अपनी जिद पर अड़े रहने
और अपने दम पर
अकेले आगे बढ़ने का....

फिर से रोशन होंगी
बेमकसद अंधेरी जिंदगियां
जल उठेंगे मशाल
नए नए सपनों के
हर गली गली
हर शहर शहर में....

रोशनी का सपना
यूंही बेकार तो नहीं जाएगा
रोशनी भले ही मिट जाए
पर उसका सपना
एक दिन जरूर रंग लाएगा
........
........

उजाला दाखिल होगा दबे पांव
बंद अंधेरे कमरों में
और छोड़ जाएगा जाएगा निशान
किसी शरारती बच्चे सा
....

उजाला ढूंढ लेगा
कोई रास्ता
या चोर दरवाजा
फ़िर किसी खुशनुमा झौंके सा
रोप जाएगा खुशियों के जंगल
....

उजाले को जीना है
इस दुनिया में
अपनी ही शर्तों पर
उजाला लेगा किसी दिन
इस अंधेरी दुनिया से
अपने दमन का हिसाब !!
........
........

बचे रहेंगे कुछ ठूंठ, कुछ झाड़ियां
और मुठठी भर पेड़
जिन पर होंगे
कुछ खाली घोंसलों के ढेर
जिन्हें छोड़ कर
कब के उड़ चुके होंगे
पंछियों के दल
जंगलों के उजड़ने से पहले
........

पेड़ पंछियों और पुरनियों के किस्सों की
मद्धिम तान गूंजेगी कुछ दिन
जंगल के बाशिंदों के बीच
जो छूटे रह गए
या बिछुड़ गए भगदड़ के शोर में
और जो ढूंढ रहे हैं
बरसों से अपना घर
टूटती हुई सांसो और
खोए हुए सपनों के मलबों के बीच
........

पर
यकीन है इतना कि
कभी तो दिन बदलेंगे
और जंगल में फ़िर से
उग आएंगे
सदाबहार पेड़ों के झुंड के झुंड
और देर होने से पहले
और सब कुछ खत्म होने से पहले
लौटेंगे पंछियों के दल के दल
अपने अपने बसेरों में
........
........

सवालों की दुनिया
बड़ी बेतरतीब, बहुत उबड़खाबड़
कभी अर्थपूर्ण तो कभी उटपटांग
बेतुकी बातों एक सिलसिला भर
सारे रास्ते टेढ़े मेढ़े, कहीं फ़िसलनभरी काई
जोखिम भरे दुनिया की / एक दुर्गम यात्रा
डालती है खलल मन में
करती है बेचैन रूह को
बन जाता है / फ़ंसकर इसमें
हर कोई एक चक्कर घिन्नी
सवालों में छुपे होते हैं
रोमांच भरे नए खोजों का एक अंतहीन सिलसिला
हर गलत जवाब देती है कुंजी / किसी अगले सफ़र का
कभी उतावले कभी बेहद गंभीर
कभी गुदगुदाते कभी फ़ांस बन चुभते
सवाल किसी का भोला विश्वास / तो किसी की कुटिल चाल
सवालों के उतार चढ़ाव में छिपे
जीवन यात्राओं के विकास की पहेलियां
सवालों के धुंधलके भरे कगार से झांकते
भूले बिसराए इतिहास के पन्नों में दफ़्न
सत्य, अर्धसत्यों और मिथकों के साए
सवालों के मर्मभेदी प्रहार
कर देते हैं तहसनहस
सुरक्षा कवचों का हर चक्रव्यूह
सवालों की बंजर उसर धरती
सोख लेती है हर आंसू और आहें
सवालों की रोशनी में बुनती है जिंदगी
नित नए नए ख्वाब
........
........

किसे पता है आईने का सच
भला कौन जान पाया है
उस के अंतस की बात
आईने का क्या कसूर
गर छवि दिखे
उसमें अपनी
भौंडी और बेतरतीब
पर हर बार सजा पाए
बस वही एक बेबस और बेकसूर
बिंबो और प्रतिबिंबो की
चौतरफ़ा मार झेलता
सच झूठ मिथ्या छ्ल
सभी बातों का
निरीह मूक एक साक्षी
संसार के अन्यायपूर्ण बातों और मांगो से
त्रस्त घबराया बौखलाया
ढूंढता है कोई सूना अंधेरा कोना
जहां तक न पहुंचती हो
रोशनी की कोई नन्ही सी भी किरण
........
........

हर आती जाती सांस
उकेरती है / नए स्वप्न लहरियों का
अद्भुत तिलिस्मी संसार
हमारी उदास / अनमनी मनभित्तियों पर
भले ही न हो फ़ुर्सत
या बची हो सामर्थ्य
संसार की चकाचौंध से
धुंधलाई / निष्प्रभ आंखों में
उन्हें देख पाने की
....

जब / तब / बारंबार
टूटे / अधजले स्वप्नों का मलबा
अक्सर / सेंध मार
किसी चोर दरवाजे से
प्रवेश कर
धराशायी कर देता है
सभी वहमों के
सूक्ष्म महीन तानों बानों को
दबे ढके रहते है जिनमें
अक्सर / हम सब के संसार
....

फ़िर भी / कभी कभार
कौंध जाती है उनमें भी
रह रह कर
भूले बिसरे / आधे अधूरे सपनों के
बुझती चिंगारियों का क्षणिक उजास
...

जो ठहर जाता है / कुछ पल के लिए
उमड़ते / फ़ेनिल काल प्रवाह में
किसी झिलमिलाते प्रकाशस्तंभ सा
टेढ़े मेढ़े रास्तों के मकड़ जाल से
खोई हुई / रूठ कर नींद में डूबी हुई
मंजिलों का / पता / दिशा देता
फ़िर करता आह्वान / किसी नए सफ़र का
........
........



कैसी भी कर्कश धुनें हो गूंजती हमारी बेसुरी जिंदगियों में
संमदर तो उन में से भी एक खुशनुमा गीत बना लेता है
........

भले न हो सधी सधाई जिंदगियों में उसकी कोई खास जगह
संमदर जानता है सब कुछ फ़िर भी दिलों में किसी ख्वाब सा धड़कता है
........

रास्ता बदल लें लाख कतराकर लोग उसे भूल जाने की कोशिश में
संमदर मगर फ़िर भी हर मोड़ पर ठहर कर उनका इंतजार करता है
........

जवाबों की भूलभुलैया में न जाने क्यों अक्सर भटकते रहते है
लोग नहीं जानते कि सवालों के सही जवाब समन्दर के पास ही होते हैं
........
........

कभी कभी न जाने कैसे
क्या से क्या हो जाता है
जब मुश्किल हो जाता है
सही और गलत में फ़र्क करना
और कोई नामालूम शक
उठाता है सिर जब तब
डराता है रात बिरात
सुनसान सन्नाटे में
बजने लगता है गजर सा
घनघनाटा, टनटनाता
उकेर जाता है जाने
कैसे कैसे दुस्वप्न मनभित्तियों पर
शांत झील में डाल देता है खलल
आसमान धूसर हो जाता है/ तब
सूरज धुंधला जाता है
बुझने लगती हैं
तारों की भी रोशनियां
हरियाली भी देने लगती है ताप
सब कुछ जंगल हो जाता है!!
........
........



पी जाए हमारे भी हिस्से का जहर
नीलकंठ बन जाए कोई दूसरा
काश आ जाए कोई दूसरा
........

ऊबे बैठे है तमाशाई सब
चमत्कार दिखला दे कोई दूसरा
काश आ जाए कोई दूसरा
........

भेड़ें हैं चल पड़ेंगे फ़ौरन
बस रहनुमा बन जाए कोई दूसरा
काश आ जाए कोई दूसरा
........

पूजेंगे बाद में बुत बनाकर
शहीद अभी हो जाए कोई दूसरा
काश आ जाए कोई दूसरा
........

अंधेरा है पर हिम्म्त नहीं है हममें
आग चुरा कर ला दे कोई दूसरा
काश आ जाए कोई दूसरा
........
........


संभावना बची रहे
आने वाले समयों में
जिंदगियों में हमारे
हंसने की/ गाने की
रोने की/ शोकित होने की
बचपने की/ मूर्खताओं की
पागलपन की/ गल्तियों की
........

संभावना बची रहे
महज कंकड़ पत्थर
या तुच्छ कीट कीटाणु
निष्प्राण पाषाण/ या
बर्बर पशु बनते जाने के,
मनुष्य बने रहने की
........

संभावना बची रहे
इस आपाधापी/ कोलाहलमय
जीवनों में
आकाश की ओर ताकने की
और लहरों को गिनने की
हमारी उबड़खाबड़ जिंदगियों में
स्नेह, संवेदना एव करूणा की
कोमल कलियों के खिलने की
........

संभावना बची रहे
जीवनों के
खिलने की/ पनपने की
सपने देखने की
नई सृष्टि रचने/ बनने की
मनों के/ अंधेरे
सर्द/ सूने गलियारों में
सूरज के किरणों के
अल्हड़ ताका झांकी की
........

संभावना बची रहे
तमाम दुश्मनी और दूरियों को भूलकर
आपस में/ एक दूसरे के लिए
महज मूक दर्शक/ तमाशबीन बने रहने के
दर्पण और दीपक बनने की
हमसफ़र और रहनुमा बनने की
........

संभावना बची रहे
हमारी सुविधाभोगी, मौका परस्त
मतलबी, हिसाबी किताबी जिंदगियों में
कभी कभार, यूं ही
बेमकसद/ बेवजह जीने की
दूसरों को अपने किसी स्वार्थ सिद्धि हेतु
महज साधन या सीढ़ी सा
इस्तेमाल करने की बजाए
उन्हें भी खुद सा समझने की
........

संभावना बची रहे
कटु कर्णभेदी शोरगुल के
आदी/ अभ्यस्त हमारे मनों में
कोमल/ निशब्द/ शब्दहीन बातों के
पारदर्शी रूप छटा को
समझने/ पहचानने की
जुबान की दहलीज पर ठिठके/ सहमे
शब्दमाला से कोई सुंदर सा गीत पिरोने की
........

संभावना बची रहे
अर्धसत्यों/ षडयंत्रो
छल प्रपंचो के
काई पटे कीच में
डूबते/ उतराते
महज सांस भर ले पाने की
........

भागमभाग के जिन्न के
पंजो मे दबोची हुई जिंदगियों के
सांस थमने से पहले
मिले फ़ुर्सत पल भर को
भरपूर सांस ले
अपना अपना जीवन
जी पाने की
........

संभावना बची रहे
मिटने/ खत्म होने हम में
छोटे छोटे स्वार्थों के लिए
गिरते हुओं को रौंदकर
सबसे आगे निकलने की प्रवृत्ति का
दूसरे की कीमत पर
खुद को बेहतर सिद्ध करने का
........

संभावना बची रहे
आने वाले समयो में
अंधेरे अंतहीन ब्लैकहोल (श्याम विवर) में
गर्क होती जिंदगियों की विरासतों का
नक्षत्र/ नीहारिकाएं और
अनगिन रोशनी की लकीरें बन
अंतरिक्ष में जगमगाने का !!
........
........

कांचघर की दीवारों से घिरी
सुरक्षित/ आश्वस्त
साम्राज्ञी सी
निश्चिंत घूमती है दिन रात
अपनी छोटी सी दुनिया के
निश्चित से दायरे में
किसी कठपुतली सी
मौन/ निजी एकालापों में गुम
........

नहीं जान पाती
कि गुजर रही है करीब से
जिंदगी
किसी अनजानी सी धुन पर
थिरकती
जिसकी मंद होती हुई गूंज
कभी कर देती है बेचैन
कभी उदास !
........

कब में
निगल जाती है चुपचाप
कवच बन
कांचघर की दीवारें
हर पुल/ हर रास्ता
जिंदगी जिनके सहारे
सौंप जाती है
सबको अपने सपने
........

नहीं जान पाती
कहीं पहुंचने के भ्रम में
भटकती है बेखबर
अपनी छोटी सी दुनिया के
निश्चित से दायरे में
किसी कठपुतली सी !!
........
........



मन
किसी बिगड़ैल घोड़े सा
बारंबार निषिद्ध मार्गों पर
भाग जाना चाहता है सरपट
बदहवास लगाम थामे
सुनती हूं मैं
दूर कहीं ---
सूखे पत्ते का झड़ना
जमी हुई बर्फ़ का चटकना
और कर्कश कौओं का चिल्लाना !!



यूं ही बेवजह
बजता है / अब भी
पतझड़ राग
मन की सूनी दीवारों पर
........
यूं ही बेवजह
अनमनी सी टहलती है
सहमी हुई चाहें
नींद और जाग के दरम्यान
........
यूं ही बेवजह
उंगलियां तराश देती है
फ़िर से नया कोई बुत
भले ही पत्थर बने रहे वो
बरसों पूजने के बाद
........
यूं ही बेवजह
लौटा लेने को/ जी
चाहता है
बीते पलों का
दिलकश जादू ....!!

अपने अपने कारावासों के
अनायास ही कभी बन आए/ बंदी से हम
कभी अन्जाने तो कभी जानबूझकर
कैद की दीवारों में से
किसी अन्देखे से छेद से झांकती
धूप के नन्हें से टुकड़े का
ताजी हवा के हल्के से उस झौंके का
मात्र एक हिस्सा बनने की चाह लिए
पल भर के लिए ही/ शायद
निकले हैं कभी झिझकते/ ठिठकते
चौंकते, ठहरते से कभी
अपने कैद की परिधि से बाहर
पर दूसरे ही पल/ विवश सा
खींच लिया है कदमों को वापस
अपने बंद अंधेरे कमरों में
बाहर की तेज चकाचौंध भरी/ धूप से
घबराकर
जलन और तपन का
एक तीखा सा अहसास लिए
अन्जानी हवा में घुटन महसूसते
कैद की उन्हीं अंधेरी दीवारों के बीच
उसी रची बसी/ जानी पहचानी घुटन में
जो नितांत अपने से ही तो हैं....!

वेटिग फ़ार गोदो बनाम इंतजार का सफ़रनामा

हम किसलिए जीते हैं.... किसलिए.... हर वक्त किसका इंतजार रहता है नहीं मालूम.... और समूची जिंदगी इसी इंतजार में निकल जाती है. कभी लगता है जिंदगी कुछ और नहीं सिर्फ़ इसी इंतजार का दूसरा नाम है.... शायद " वेटिग फ़ार गोदो " के पात्रों की तरह हम सब भी न जाने सारी जिंदगी किसका इंतजार करते रहते है जो आने का वादा करके भी कभी नहीं आता.... और पूरी की पूरी जिदगी इसी बेतुके इंतजार में बीत जाती है.... पर इस इंतजार से मुक्ति भी तो नहीं है.... नहीं तो जीना कितना आसान हो जाता....

जो सामने है उसी को सच मान लेना.... जी लेना सोचे समझे विचारे बगैर.... सचमुच कई बार लोगों से ईषर्या होती है जिनकी भरी पूरी जिंदगियों में ऐसी बेतुकी मूर्खताओं के लिए कोई जगह नहीं होती.... जहां कोई तलाश, कोई भटकन/ यात्रा का नामोनिशान तक नहीं.... जिन जिंदगियों की नीच त्रासदी यही है कि इनमें कोई त्रासदी नहीं घटती.... न ही घटने की गुंजाईश हो शायद.... कौन जाने.... सुविधाओं/परेशानियों के परे कोई तलाश, कोई भटकन नहीं.... ?!

अतीत में एक छलांग

कभी कभी लगता है मानो कहीं दुबारा लौटना भी अर्थहीन/ असंगत/ बेतुका नहीं होता. शायद उस वक्त हम एक नई अंतर्दृष्टि नई समझ के साथ अतीत को "एप्रोच" करते है....और तब अतीत शायद हमें उतना अधिक क्रूर, कटु, बेतुका और अनसमझा नहीं लगता .... शायद अतीत की ओर लौटना इतना बेमानी और फ़िजूल भी नहीं होता....शायद उस वक्त तक समय या नियति हमें और हमारी अंतर्दृष्टि को कुछ और अधिक सुस्पष्ट एवं पैना कर देती है. उन्हें चीजों/ बातों के आर पार देखने लायक बना देती है ताकि हम उन सब चीजों/ बातों के महत्त्व को अच्छी तरह से जान/ समझ लें जो किसी वक्त हमें अबूझ और समझ के परे लगती थी और उन्हें सद् भाव/ करूणा के साथ समझकर अपनाएं, अपने जीवनों में उनका स्थान सुनिश्चित कर उन्हें स्वीकारें जिनसे हम निरंतर लड़ते रहे हैं....और उनका विरोध करते रहे हैं....

हां, अगर हम यह सब कर पाने में स्वयं को अक्षम या असमर्थ पाते हैं तब शायद हमने स्वयं को प्रकृति के खिलाफ़ जाकर, जीवन प्रवाह में बहने से इंकार करके खुद को इतना अधिक थका दिया होता है कि कुछ भी करने/ सोचने / समझने की शक्ति और सामर्थ्य चुक जाती है और किसी बेजान कपड़े की गुड़िया की तरह सिर्फ़ स्थितियों/ परिस्थितियों का शिकार ही बनते रहते हैं.... "विक्टिमाइज्ड" होते रहते है.... कहीं पर यह हमारा चेतन चुनाव होता है तो किसी स्तर पर अचेतन चुनाव....!

जब एक बार हम "स्व" से अपना ध्यान हटाकर अपनी दृष्टि सृष्टि/ ब्रह्मांड पर केंद्रित करते है तब हम अपने आपको बिलकुल क्षुद्र नगण्य और हीन पाते हैं और सृष्टि/ ब्रह्मांड की विशालता हमें आतंकित कर देती है क्योंकि हम स्वयं को उससे अलगा कर देख रहे होते हैं. जब हम स्वयं को उनके बीच रखकर और अपने अनूठेपन यानी " यूनीकनैस" को ध्यान में रखकर देखें तो शायद हमें यह समझ लेने मे आसानी रहे या कि हमें यह समझ में आए कि समूची सृष्टि/ ब्रह्मांड में हमारे स्वयं का क्या स्थान है और हमारी क्या भूमिका हो सकती है.

इन सबके साथ यह भी जान लेने में ही भलाई है कि हम चीजों/ परिस्थतियों को समझने / सुलझाने मे रूचि रखते हैं या उन्हें उलझाकर सिर्फ़ उन्हें तोड़ फोड़कर नष्ट भ्रष्ट करने में. इन्हीं प्रश्नों के उत्तर पर समस्त मानवजाति की उत्तरजीविता यानी " सर्वाइवल " का रहस्य टिका हुआ है. क्योंकि अंतत: हमारे समस्त कार्यकलाप और कार्य व्यवहार हमारे साथ साथ हमारे आस पास के वातावरण को भी प्रभावित करते हैं....

किसी भी चीज को तोड़ना वहां पर तो एक अंतिम विकल्प हो सकता है जहां जोड़ने/ सुलझाने की कोई संभावना ही नहीं बची है पर महज तोड़ने/ नष्ट करने के लिए किसी चीज को तोड़ना/ नष्ट करना केवल इस वजह से कि वो आपके मन मुताबिक नहीं है शायद उचित नहीं है.

सृष्टि को बेहतर बनाने अथवा बिगाड़ने में हमारी कितनी बड़ी या नगण्य भूमिका हो सकती है और इस सबके क्या परिणाम निकल सकते है बगैर यह जाने हम बेमतलब बेतुकी अर्थहीन लड़ाईयों में खुद को इतना अधिक थका डालते है कि अपनी समस्त संभावनाओं पर झाड़ू फेर देते हैं और हर बात का नियति या समय पर दोषारोपण करके खुद साफ़ बच निकलते हैं.

रिश्तों के चक्रव्यूह ४

हमारा सारा ध्यान सिर्फ दूसरे की ओर लगा रहता है....उस के दोष कमियां और खामियां निकालने और उसे तुच्छ हीन और नाकारा साबित करने की सदा कोशिशें चलती रहती है क्योंकि तभी स्वयं को सही संपूर्ण और परफ़ेक्ट ठहराया जा सकता है. हमारी दृष्टि या ध्यान कभी अपने अंदर तक नहीं जाती या मुड़ती.... दूसरे के आचार व्यवहार क्रियाकलाप से हम दुखी हैरान परेशान और कभी कभी खुश भी होते रहते हैं. चाहे हमारे स्वयं की कितनी ही हेय दयनीय दशा क्यों न हो हम दूसरे को तकलीफ़ में कष्ट में पीड़ा मे देख कर खुश होते हैं....दूसरों का सुख या खुशी हमें परेशान पागल कर देता है.... किसी के साथ सहभागिता रखने से हम बचते हैं क्योकि उस के सुख दुख में शामिल होना इन्वाल्व होना है और इन्वाल्वमेंट के अपने खतरे हैं जिनसे अक्सर हम नहीं जूझना चाहते.... इन्वाल्वमेंट या लगाव अपने साथ कई दायित्व भी लाता है जिन्हें हम अपने ऊपर ओढ़ने से बचते और कतराते हैं क्योंकि तब हम अपनें चारों ओर घटने वाली बातों के प्रति अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते.

रिश्तों के चक्रव्यूह ३

कभी कभी लगता है कि संबंधों में सब एक दूसरे को अपने मुताबिक महज " फ़िट " करना चाहते है " फ़िट " होना नहीं चाहते.... यही इन संबंधों की त्रासदी है. संबंधों का अर्थ एक दूसरे को करीब लाकर उन के बीच फ़ैली अंतहीन दूरियों को पाटकर उन्हें जोड़ना नहीं वरन एक दूसरे को तोड़ना भर रह गया है. जब कोई किसी दूसरे के हिस्से का सांस नहीं ले सकता तो किसी दूसरे की नियति तक का मालिक या रचियता होने का दावा कैसे कर सकता है?

संबंध साथ भर है एक अहसास मात्र.... अपनी अपनी कमियों/ खूबियों के बावजूद एक दूसरे से जुड़ना, जुड़कर साथ चलना/ रहना न कि कमियों / खूबियों को आरोपों की तरह एक दूसरे पर थोपना और लगातार थोपते रहना.... पर संबंधों का जब " इस्टिट्य़ूस्नालाज़ेशन " हो जाता है तो संबंध बचे नहीं रह सकते....बचता है सिर्फ़ दिखावा.... "शिमेरा" या एक " फ़ार्श "!

क्या दूसरा मात्र तुम्हारा " रिप्लिका " है कोई प्रतिमूर्ति या गीली मिट्टी का लौंधा मात्र जिसे तुम चाहे जो आकार / रंग / रूप दे दो. दूसरे का क्या कोई अपना अलग पृथक स्वतंत्र अस्तित्व नहीं....

संबंध दूसरे को भावनात्मक शारीरिक मानसिक और आत्मिक रूप से शोषित करने का मात्र एक जरिया है. यह एक दूसरे के साथ " इंट्रएक्ट " कर एक दूसरे की बेहतरी या आत्मिक भरपूरी समृद्धि के लिए नहीं वरन एक दूसरे को दमित या शोषित करने में प्रयुक्त होता है. दूसरा हमेशा बाहरी या अजनबी बना रहता है....परिधि के परे.... वो कभी आपके अस्तित्व का केंद्र नहीं बन पाता.... कभी आपका हिस्सा नहीं बन पाता.... दोनों मिलकर एक एकीकृत इकाई नहीं बन पाते....पर भला क्या ऐसा वाकई संभव नहीं है कौन जाने?!

रिश्तों के चक्रव्यूह २

कभी कभी लगता है कि हम एक दूसरे से नहीं वरन एक दूसरे के "आईडिया" से ज्यादा प्यार करते है जिन्हें हम सब में मौजूद कल्पना और सृजनशीलता साथ मिलकर अनूठे रंगो से सजा हमारे सम्मुख परोस देती है किसी स्वादिष्ट छप्पन भोग सा, जिसका स्वाद यथार्थ से साक्षात्कार के बावजूद मन के किसी कोने में शेष रहता है किसी "नास्टेल्जिया" की तरह. जहां किसी तरह के "कन्फ़लिक्ट" की गुंजाईश ही नहीं जहां अपने उन "आईडियाज" को अपने मन मुताबिक " चेंज" "अरेंज" या "री अरेंज" करने की बेहिच् आजादी है.

पर जब यथार्थ में हम एक दूसरे के करीब होते है तो दूसरे की हर कमजोरी को "मैग्नीफ़ाई" करके देखते हैं उसमें मौजूद सभी गुणों को अन्देखा करने की एक अवचेतन प्रयास के चलते जो हममें मौजूद अहं भाव का जरखरीद गुलाम मात्र है. तब हम एक दूसरे को तोड़ मरोड़कर अपने मुताबिक बना लेना चाहते है. उसे अपने जैसा बना लेने की इच्छा के वशीभूत होकर, ताकि दूसरा हमारा बन सके, हमारे साथ जी सके.... रिश्तों में भी स्वामित्व की भावना पीछा नहीं छोड़ती चाहे नतीजा हो " अगली सीन्स " या "कन्फ़्रन्टेशन".... एक बेवजह नरक!

केवल इस एक वजह के कारण कि आप दूसरे को कितना (?!) चाहते हैं, क्या हक है आपको कि आप दूसरे से "इम्पासिबल" की उम्मीद रखें अपनी जिंदगी सुविधाजनक सुख शांतिमय बनाने के लिए किसी दूसरी जिंदगी को अपने मन मुताबिक ढालने की कोशिश में उसे तोड़ मरोड़कर एक अपाहिज बनाकर छोड़ दे.... आखिर क्यो??

रिश्तों के चक्रव्यूह १

कभी कभी तो लगता है मानो सब लोग यहां अपने अपने मतलब या जरूरत के हिसाब से समझते हैं एक दूसरे को.... न कम न ज्यादा.... किसी को ज्यादा जानकर समझ कर क्या लेना. किसी को ज्यादा जान लेने से क्या फ़ायदा.... इन सब बातों में कोई क्यों भला अपना समय बरबाद करे? पर क्या इतना भर किसी को जान लेना या समझ लेना पर्याप्त है....? क्या दूसरा हमेशा " दूसरा " ही बना रहेगा....? फ़िर हर वक्त क्यों हमें किसी की तलाश रहती है जो हमें समझ ले.... हमें पूरी तरह से समझ ले. मानो इस समझने, न समझने पर ही हमारी पूरी जिंदगी का दारोमदार टिका हुआ है. अगर कोई हमें नहीं समझता तो उसकी "ज्यादती" है. भला कहीं यूं अनसमझा अन्जाना होकर भी जिया जा सकता है क्या....? मालूम है कि हर बार यह तलाश भटकाती मात्र है.... यह तलाश हमें कहीं पहुंचने नहीं देती.... पर ज्यादातर लोग इसी तलाश का शिकार हो इस जिंदगी के रेगिस्तान में भूखे प्यासे मर खप जाते हैं.... क्या यही जिंदगी है.... क्या जिंदगी का यही मतलब है....?

क्यों कभी लगता है दूसरा हमेशा " दूसरा " ही बना रहेगा.... क्या अकेले अकेले जीना ही हम सबकी नियति है.... और " साथ " महज एक स्वप्न.... क्षणिक.... एक पल का, कुछ पल का.... पर पूरे जीवन के काल प्रवाह में सुख के उस पल की क्या बिसात.... क्या उस एक पल के सहारे पूरी जिंदगी काटी जा सकती है.... उस एक पल को कालातीत मानना मानो समय की गति को रोक देने की बचकाना कोशिश से कुछ ज्यादा तो होगी नहीं.... समय और काल के परे भी क्या जिंदगी संभव नहीं....

मैं
हवा हूं
धूप हूं
पानी हूं
....

गुदगुदाती हूं हवा बन
अपनी उंगलियों से
किसी बच्चे का
कोमल सा गाल
....

छू लेती हूं फिर धूप बन
अंधेरों से घिरे
हर अनाम चेहरों को
....

टपक पड़ती हूं बूंदे बन
फूलों पर, पत्तियों पर
नन्हीं कोंपलों, अंकुरों पर
....

चाहती हूं
....

श्वास बनू मैं
रक्त बन बहूं शिराओं में
मुस्कान सी बिखर बिखर जाऊं
....

मैं
हवा
धूप
पानी
....

मत रोको मुझे
मैं रूकना नहीं चाहती
मत बांटो मुझे
मै बंटना भी नहीं चाहती
मत बांधो मुझे
मैं बंधना भी नहीं चाहती
....

मैं
हवा
धूप
पानी
....

मेरा न रंग कोई
न कोई रूप मेरा
न कोई भाषा मेरी
न कोई धर्म मेरा
....

मैं
हवा
धूप
पानी
....

फिर क्यों बांध लेना चाहते हो
मुझे क्यों तुल जाते हो बांटने को
क्यों उठा देते हो हर जगह पर दीवारें
क्यों बढ़कर बीच रास्ते में रोक लेते हो
....

मैं
हवा
धूप
पानी
....

मैं स्वछंद निर्द्वन्द
मैं निर्मल उजली
मैं निर्भय शुचि
....

मैं
हवा
धूप
पानी
....

परिचित, अपरिचित
देश, विदेश
हर सीमा के परे
हर बंधन को तोड़
बहती हूं / चलती हूं
....

मैं
हवा
धूप
पानी
....

मत रोको मुझे
मत बांधो मुझे
मत बांटो मुझे
....
....

एक रूकी थमी जिंदगी

ऐसा लगता है कि जिदगी किसी छोटे से उनींदे अनाम स्टेशन पर बरसों से रूकी हुई है और उसे आज तक उस सिग्नल का इंतजार है जो उसे उस वीरान और खामोश जगह को छोड़कर कहीं और जाने की इजाजत देगी. पर काश ऐसा हो कि वो समय कुछ जल्दी ही आ जाए. कहीं ऐसा न हो कि गाड़ी को सिग्नल मिलने में काफ़ी देर हो जाए और उसकी खुद को वहां से बाहर निकालकर कहीं दूर ले जाने की क्षमता भी धीरे धीरे चुकते हुए कभी खत्म न हो जाए. और तो और बरसों धूल धूप और बरसात सहते सहते जंग खा जाए और हिलने डुलने के लायक भी न बचे. और फिर जीवन भर उसी स्टेशन पर खड़े रहकर वहां से गुजरने वाली हर आती जाती गाड़ियों को हसरत भरी निगाहों से ताकते रहे.

ऐसा नहीं है कि उन्हें देखकर ईषर्या नहीं होती. पर धीरे धीरे मन काफ़ी सारी बातों या चीजों का आदी हो जाता है और मन में उठने वाली हर लहर भी अंतत मन की गहराईयों में विलीन हो जाती है. आस पास का गतिमान जीवन किसी चलचित्र सा दिन रात आंखों के सामने से गुजरता रहता है और मन ठगा सा सब कुछ चुपचाप देखने को विवश हो जाता है. ऐसा लगता है कि आस पास से गुजरने वाली गाड़ियां उसे मुंह चिढ़ाती हुई वहां से गुजरती चली जा रही है और वो चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता.

पर ऐसे में भी मन अगर निराशा के भंवर मे डूबते उतराते भी उम्मीद का दामन न छोड़े तो उसे उस स्थिर जंगम स्थिति में भी आनंद की अनुभूति हो सकती है. क्योंकि भले ही रूकी हुई जिंदगी उसकी जिंदगी में गति और रफ़्तार का आयाम जोड़ पाने मे असमर्थ प्रतीत हो पर इसका मतलब ये नहीं कि जिंदगी के पास उसे देने को कुछ बचा ही नहीं. और खुद उस की जिंदगी भी बदरंग या बेमानी हो गई है ऐसी बात भी नहीं होती हालांकि उसके समेत बाकी सभी लोगों को कुछ ऐसा ही लगता रहता है. ये अलग बात है कि ऐसा कुछ भी होने के बाद मन में यही विचार रह रह के उमड़्ते घुमड़्ते रहते है कि वो कैसा अभागा मनुष्य है कि जब उसकी लेने बारी आई तो जिंदगी की झोली खाली निकली.

पर वास्तविकता ठीक इस के विपरीत है क्योंकि जिंदगी अपने दरवाजे से किसी को भी खाली हाथ नही लौटाती. न ही एक बार किसी को कुछ देकर उस का खजाना खाली हो जाता है. अगर ऐसा नहीं होता जिंदगी में जो कुछ भी एक बार घट जाता वही हमारी प्रथम और अतिम परिणिति भी होता. और जिंदगी में फिर कुछ कहने सुनने देखने गुनने की गुंजाईश ही न बचती. जीवन में असफल और पराजित मनुष्यों के पास भविष्य के लिए उम्मीद रखने लायक कोई बात ही नहीं बचती.

पर हताशा के अतल अंधकूप से ही उपजते हैं रोशनी के झिलमिलाते फ़व्वारे और वहीं से उपजते है मीठे मधुर गीत क्योंकि जिंदगी ऐसी ही परिस्थितियों में जीने वालों के दिलों के किसी कोने में चुपचाप आशा और उम्मीद के दीप जलाती रहती है कि कभी तो उनकी रोशनी उनकी सूनी अंधेरी राहों को आलोकित करेगी और उन के पीड़ा और असह्य दुख से सूखे उदास और मुर्झाए चेहरों पर सुख और खुशी की नन्ही उंगलिया दस्तक देगी. क्योंकि अक्सर यही देखा गया है कि हम थक हारकर भाग्य के भरोसे निष्चेष्ट बैठ जाते है पर जिंदगी ऐसा कुछ भी नहीं करती. वो हमारे लिए नित नए नए अवसर सपनों और संभावनाओं के इंद्रधनुषी संसार की सृष्टि में जुटी रहती है जिसका अक्षय भंडार कभी नही घटता. घटाटोप अंधेरों में डूबी और खामोशी की चादर ओढ़े सोई जिंदगियों के दिलों में से ही उम्मीदों के बीज या अंकुर नई नई अंतर्दृष्टियो संवेदनाओं और समझबूझ के रूप में फूटकर बाहर निकलती है जहां उन्हें अपने आस पास की दुनिया को देखने के लिए सूक्ष्म और पैनी दृष्टि विकसित करने के पर्याप्त अवसर मिलते हैं ताकि उनकी रोशनी में अंतर्विरोधों और विरोधाभासों में उलझी दुनिया को स्पष्ट रूप से देखा जा सके.

ऐसा भी तो हो सकता है कि जिंदगी उनके बहाने शायद उन लुप्त सिरों या कड़ियों को तलाश रही है जो उन स्थानों या जगहों में मौजूद तो जरूर है पर किसी की अभी तक उस पर नजर नहीं पड़ी है या आस पास से गुजरने वाले लोग जल्दबाजी में उसे देखने या समझने से चूक गए हो. पर हो सकता है कि कोई नई संवेदनाओं से लैस व्यक्ति या लोगों का समूह वहां से गुजरे और उनमें होती हल्की हल्की सुगबुगाहटों हलचलों और आहटों के मूक संसार को शब्द दें. और वे लोग उनके भीतर होने वाले कायाकल्प और रूपांतरण की प्रक्रियाओं को अदृश्य संसार से दृश्यमान जगत में लाने का भगीरथी प्रयास को अपना लक्ष्य बना ले. ताकि उन अनगिन अंधेरी दुनियाओं के समक्ष उम्मीद के किसी दैदीप्यमान प्रकाशस्तंभ के अजस्त्र स्रोत के रूप मे उन उदाहरणों को रख पाने मे सफ़ल हो सके. ताकि लोग इस बात को जान समझ ले कि रूकी और थमी जिंदगियों का सफ़र बंद अंधेरी गलियों से निकलकर कई बार जगमगाती झिलमिलाती हुई राजमार्गों तक भी पहुंच सकता है.

अग्निपाखी के नाम

कुछ नहीं चाहिए मुझे
सिवाय
अपने पैरों तले जरा सी जमीन
और मुठिठयों में जरा सा आसमां
बस / बहुत है इतना ही
मेरे लिए
कि जब चाहूं भर सकूं उड़ान
और फिर ठहरकर
कहीं पर पल भर
उतार लूं सारी थकान
मेरी अभिशप्त तीर्थयात्राओं का
यात्रा दर यात्रा का
रहेगा यही पर सबूत
जिस की तमन्ना लिए
जाने कितनी बार जन्म लेता है मन
फ़िनिक्स सा अपनी ही राख की ढेर से
कर लेता है अभिमंत्रित हर उड़ान
वही देगा बयान हर उड़ान का
प्रामिस्ड लैंड का सफ़र फिर
उदास और तन्हा ही सही !
........
........


अपने सपनों के मलबे और टूटे नुचे पंखो के ढेर के नीचे फड़फड़ाती कराहती और दम तोड़ती जिंदगियों की आंखों में, अग्निपाखी उम्मीदों और आशाओं के अग्निपंख की डोर से बंधे सपनों की नई उड़ानों का एक अविरल अक्षय इन्द्र्धनुषी स्वप्नपुंज बो देता है, जिस की झिलमिलाती रोशनी उन सभी धुंधलाई निष्प्रभ आंखों को फिर से नई नई यात्राओं और उड़ानों की स्वप्न लहरियों में आकंठ डूबने का आमंत्रण देती है.

अग्निपाखी जिंदगी में मिलने वाले उन असंख्य अवसरों संकेतों और सूत्रों का प्रतीक भी है जो यह दर्शाता है कि जिंदगी कभी थमती नहीं, कहीं रूकती नही और हारती भी नही. जिंदगी को भी तो हम सभी के साथ मिल कर उत्सव मनाने का, सपने देखने का और नई उड़ान भरने का अवसर मिलता है. प्रकृति और जिदगी के द्वारा छोड़े असंख्य संकेत सूत्रों को तलाशना और सहेजना अग्निपाखी की परंपरा और विरासत का दूसरा नाम है जिस की डोर थामे मैं कई बार टूटने और पराजित होने के बाद भी हर बार स्वप्न संसार में दाखिल होकर स्वप्नजीवी होने के सपने को फिर से प्रस्फुटित और विकसित होते हुए देखती हूं.

Aquarium Clock

calendrier elfe

Powered by Blogger.

Blog Archive

Blog Archive

Followers

About Me

My photo
A seeker trying to make a progess on the roads less travelled in quest of the magical journey called life.

About this blog

Labels

Labels