अग्निपाखी

जीवन के संघर्षों के अग्निकुंड में जलते हुए अपनी ही राख से पुनर्जीवित होने का अनवरत सिलसिला....

रिश्तों के चक्रव्यूह २

कभी कभी लगता है कि हम एक दूसरे से नहीं वरन एक दूसरे के "आईडिया" से ज्यादा प्यार करते है जिन्हें हम सब में मौजूद कल्पना और सृजनशीलता साथ मिलकर अनूठे रंगो से सजा हमारे सम्मुख परोस देती है किसी स्वादिष्ट छप्पन भोग सा, जिसका स्वाद यथार्थ से साक्षात्कार के बावजूद मन के किसी कोने में शेष रहता है किसी "नास्टेल्जिया" की तरह. जहां किसी तरह के "कन्फ़लिक्ट" की गुंजाईश ही नहीं जहां अपने उन "आईडियाज" को अपने मन मुताबिक " चेंज" "अरेंज" या "री अरेंज" करने की बेहिच् आजादी है.

पर जब यथार्थ में हम एक दूसरे के करीब होते है तो दूसरे की हर कमजोरी को "मैग्नीफ़ाई" करके देखते हैं उसमें मौजूद सभी गुणों को अन्देखा करने की एक अवचेतन प्रयास के चलते जो हममें मौजूद अहं भाव का जरखरीद गुलाम मात्र है. तब हम एक दूसरे को तोड़ मरोड़कर अपने मुताबिक बना लेना चाहते है. उसे अपने जैसा बना लेने की इच्छा के वशीभूत होकर, ताकि दूसरा हमारा बन सके, हमारे साथ जी सके.... रिश्तों में भी स्वामित्व की भावना पीछा नहीं छोड़ती चाहे नतीजा हो " अगली सीन्स " या "कन्फ़्रन्टेशन".... एक बेवजह नरक!

केवल इस एक वजह के कारण कि आप दूसरे को कितना (?!) चाहते हैं, क्या हक है आपको कि आप दूसरे से "इम्पासिबल" की उम्मीद रखें अपनी जिंदगी सुविधाजनक सुख शांतिमय बनाने के लिए किसी दूसरी जिंदगी को अपने मन मुताबिक ढालने की कोशिश में उसे तोड़ मरोड़कर एक अपाहिज बनाकर छोड़ दे.... आखिर क्यो??

रिश्तों के चक्रव्यूह १

कभी कभी तो लगता है मानो सब लोग यहां अपने अपने मतलब या जरूरत के हिसाब से समझते हैं एक दूसरे को.... न कम न ज्यादा.... किसी को ज्यादा जानकर समझ कर क्या लेना. किसी को ज्यादा जान लेने से क्या फ़ायदा.... इन सब बातों में कोई क्यों भला अपना समय बरबाद करे? पर क्या इतना भर किसी को जान लेना या समझ लेना पर्याप्त है....? क्या दूसरा हमेशा " दूसरा " ही बना रहेगा....? फ़िर हर वक्त क्यों हमें किसी की तलाश रहती है जो हमें समझ ले.... हमें पूरी तरह से समझ ले. मानो इस समझने, न समझने पर ही हमारी पूरी जिंदगी का दारोमदार टिका हुआ है. अगर कोई हमें नहीं समझता तो उसकी "ज्यादती" है. भला कहीं यूं अनसमझा अन्जाना होकर भी जिया जा सकता है क्या....? मालूम है कि हर बार यह तलाश भटकाती मात्र है.... यह तलाश हमें कहीं पहुंचने नहीं देती.... पर ज्यादातर लोग इसी तलाश का शिकार हो इस जिंदगी के रेगिस्तान में भूखे प्यासे मर खप जाते हैं.... क्या यही जिंदगी है.... क्या जिंदगी का यही मतलब है....?

क्यों कभी लगता है दूसरा हमेशा " दूसरा " ही बना रहेगा.... क्या अकेले अकेले जीना ही हम सबकी नियति है.... और " साथ " महज एक स्वप्न.... क्षणिक.... एक पल का, कुछ पल का.... पर पूरे जीवन के काल प्रवाह में सुख के उस पल की क्या बिसात.... क्या उस एक पल के सहारे पूरी जिंदगी काटी जा सकती है.... उस एक पल को कालातीत मानना मानो समय की गति को रोक देने की बचकाना कोशिश से कुछ ज्यादा तो होगी नहीं.... समय और काल के परे भी क्या जिंदगी संभव नहीं....

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