बरसों से जीर्ण शीर्ण
सूने अंधेरे गलियारों में
घूम टहल रहे हैं वे
जहां तहां बिखेरते
बेवजह बातों के छिलके
अपनी किसी दुनिया में गुम
पल भर को चकित/ मुग्ध
निहारते उन खंडहरों को
जैसे जग पड़े हों सोते से
फ़िर उबासी का चुइंगम चबाते
निकल पड़ेंगे बाहर किले से
लौट जाने अपनी अपनी दुनियाओ में
........
आखिर को तो/ महज
सैलानी ही हैं वे
कभी भूले भटके
करेंगे याद
दीवारों पर खुदे
उन भूले बिसरे चित्रों को
पच्चीकारी/ कारीगरी को
और फ़िर भूल जाएंगे
किसी रोचक किस्से सा
........
स्मृ्तियों के चमगादड़
आशंकित/ आतंकित से
निहारेंगे भर
उन टेढ़ी-मेढ़ी
रोशनी की लकीरों को
जिनके परे दफ़्न हैं उनकी जिंदगियां
........
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सूने अंधेरे गलियारों में
घूम टहल रहे हैं वे
जहां तहां बिखेरते
बेवजह बातों के छिलके
अपनी किसी दुनिया में गुम
पल भर को चकित/ मुग्ध
निहारते उन खंडहरों को
जैसे जग पड़े हों सोते से
फ़िर उबासी का चुइंगम चबाते
निकल पड़ेंगे बाहर किले से
लौट जाने अपनी अपनी दुनियाओ में
........
आखिर को तो/ महज
सैलानी ही हैं वे
कभी भूले भटके
करेंगे याद
दीवारों पर खुदे
उन भूले बिसरे चित्रों को
पच्चीकारी/ कारीगरी को
और फ़िर भूल जाएंगे
किसी रोचक किस्से सा
........
स्मृ्तियों के चमगादड़
आशंकित/ आतंकित से
निहारेंगे भर
उन टेढ़ी-मेढ़ी
रोशनी की लकीरों को
जिनके परे दफ़्न हैं उनकी जिंदगियां
........
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24 comments:
जहां तहां बिखेरते
बेवजह बातों के छिलके
अपनी किसी दुनिया में गुम
पल भर को चकित/ मुग्ध
निहारते उन खंडहरों को
जैसे जग पड़े हों सोते से
फ़िर उबासी का चुइंगम चबाते
निकल पड़ेंगे बाहर किले से
लौट जाने अपनी अपनी दुनियाओ में
आज के समाज का यथार्थ । सैलानियों वाला ही रवैया है ।
खंडहरों का माध्यम, स्मृतियों की रेखायें, सैलानियों सा जीवन हमारा, सुन्दर निरूपण।
आखिर को तो/ महज
सैलानी ही हैं वे
कभी भूले भटके
करेंगे याद
दीवारों पर खुदे
उन भूले बिसरे चित्रों को
पच्चीकारी/ कारीगरी को
और फ़िर भूल जाएंगे
किसी रोचक किस्से सा
........waah
स्मृ्तियों के चमगादड़
आशंकित/ आतंकित से
निहारेंगे भर
उन टेढ़ी-मेढ़ी
रोशनी की लकीरों को
जिनके परे दफ़्न हैं उनकी जिंदगियां
Badi udasi bharee hai is rachana me! Lekin hai badi sundar!
स्मृ्तियों के चमगादड़
आशंकित/ आतंकित से
निहारेंगे भर
उन टेढ़ी-मेढ़ी
रोशनी की लकीरों को
जिनके परे दफ़्न हैं उनकी जिंदगियां
वाह !! कितनी गहरी बात कही है आपने अपनी रचना के माध्यम से ...
"..फ़िर उबासी का चुइंगम चबाते
निकल पड़ेंगे बाहर किले से
लौट जाने अपनी अपनी दुनियाओ में...."
बेहतरीन!
स्मृ्तियों के चमगादड़
आशंकित/आतंकित से
निहारेंगे भर
उन टेढ़ी-मेढ़ी
रोशनी की लकीरों को
जिनके परे दफ़्न हैं उनकी जिंदगियां
बहुत खूब...एक सशक्त कविता लिखी है आपने...बधाई।
इस विषय पर पहले इक्का-दुक्का कविताएं ही गुज़री हैं नज़र से। यथार्थपरक अनुभव। उत्तम संदेश।
इतने सुन्दर शब्द संयोजन ने कविता के भाव को स्वयं ही मुखरित होने को विवश कर दिया है !
ढेरों बधाइयाँ !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
सुन्दर विम्बों से रची गयी सुन्दर रचना!
Dil ko chhu jane wala lekh
सुन्दर भाव !
स्मृ्तियों के चमगादड़
आशंकित/ आतंकित से
निहारेंगे भर
उन टेढ़ी-मेढ़ी
रोशनी की लकीरों को
जिनके परे दफ़्न हैं उनकी जिंदगियां
अचेतन मन को ढूँढती सुंदर पंक्तियाँ.
आज पहली बार आपकी कविताओं से परिचय हुआ.. नए विम्ब के साथ कविता लिख रही हैं आप.. बहुत सुन्दर...
स्मृ्तियों के चमगादड़
आशंकित/ आतंकित से
निहारेंगे भर
उन टेढ़ी-मेढ़ी
रोशनी की लकीरों को
जिनके परे दफ़्न हैं उनकी जिंदगियां
कुछ अलग ही बिम्ब गढ़े हैं..... बेहतरीन
स्मृ्तियों के चमगादड़
आशंकित/ आतंकित से
निहारेंगे भर
उन टेढ़ी-मेढ़ी
रोशनी की लकीरों को
जिनके परे दफ़्न हैं उनकी जिंदगियां.....
संवेदनशील अभिव्यक्ति . शुभकामना
बहुत खूब ... गुज़रे हुवे बेजान खंडहर और तस्वीरों में जान डाल दी ... लाजवाब रचना है ...
बहुत सुंदर प्रस्तुति |अच्छा शब्द चयन |बहुत बहुत बधाई
आशा
बहुत सुन्दर ...
बधाई ...
स्मृ्तियों के चमगादड़
आशंकित/ आतंकित से
निहारेंगे भर
उन टेढ़ी-मेढ़ी
रोशनी की लकीरों को
जिनके परे दफ़्न हैं उनकी जिंदगियां
काफी कुछ नया सा लगा संवेदनशील अभिव्यक्ति
अत्यंत विचारशील संकल्पना दृष्टिगोचर होती है इस रचना में. मेरा सुझाव है कि आपने जो दो - दो विकल्प दिए हैं उनमें से एक को हटा देना चाहिए ताकि उपयुक्त विकल्प के साथ कविता की लय बनी रहे. जैसे पहले भाग में “---पल भर को चकित---“, दूसरे भाग में “---आखिर को तो ......... चित्रों की कारीगरी को” और तीसरे भाग में “----आशंकित से----“ लिखना अच्छा लगेगा.
स्मृ्तियों के चमगादड़
आशंकित/ आतंकित से
निहारेंगे भर
उन टेढ़ी-मेढ़ी
रोशनी की लकीरों को
जिनके परे दफ़्न हैं उनकी जिंदगियां
वाह,बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
आखिर को तो/ महज
सैलानी ही हैं वे
कभी भूले भटके
करेंगे याद
दीवारों पर खुदे
उन भूले बिसरे चित्रों को
पच्चीकारी/ कारीगरी को
और फ़िर भूल जाएंगे
किसी रोचक किस्से सा
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sahi kaha, aisa hi hota hai....
bahu achhi rachna
संवेदन-हीनता को गहराई से चित्रित करती अच्छी रचना । यही नियति है ।
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