गगनचुबियों में फ़ंसा चांद
भौंचक्का, कुछ घबराया सा
ताकता है इधर उधर
खिन्न हो फ़िर चल देता है यूं ही
किसी भी ओर
अकबकाया अनमना सा
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जैसे पहली बार आया हो
किसी छोटे से गांव से चलकर
इतने बड़े शहर में / और
जतन से सहेजा पता सामान सहित
किसी ठग ने चुरा लिया हो
शहर पहुंचते साथ ही
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रात रात भर उंघती
गगनचुबियों की कैद में छटपटाता
अनमना सा चांद
चुपके से आंख बचा
झांक रहा चुपचाप
किसी नए बनते इमारत के
ऊपर तक उठती
स्टील गर्डरों के छेद में से
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नीचे बिछी लंबी काली
सड़कों पर
दूर तक रोशनियों का झुरमुट
तब ऐसे में
कौन पूछे उसे भला?
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टिक कर किसी दीवार से
थका हुआ चांद
सुस्ताता/ उंघता है
यहां कैसे रूक पाए अब
सोच रहा देर तलक
चांद पगलाया सा
किसी को फ़ुर्सत या
जरूरत ही नहीं है अब शायद
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इससे तो अच्छा
गांव का गंदला पोखर ही सही
देखने को मिल तो जाती थी
अपनी सूरत
बदरंग / बेकार ही सही
पर होती तो अपनी ही
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