गगनचुबियों में फ़ंसा चांद
भौंचक्का, कुछ घबराया सा
ताकता है इधर उधर
खिन्न हो फ़िर चल देता है यूं ही
किसी भी ओर
अकबकाया अनमना सा
........
जैसे पहली बार आया हो
किसी छोटे से गांव से चलकर
इतने बड़े शहर में / और
जतन से सहेजा पता सामान सहित
किसी ठग ने चुरा लिया हो
शहर पहुंचते साथ ही
........
रात रात भर उंघती
गगनचुबियों की कैद में छटपटाता
अनमना सा चांद
चुपके से आंख बचा
झांक रहा चुपचाप
किसी नए बनते इमारत के
ऊपर तक उठती
स्टील गर्डरों के छेद में से
........
नीचे बिछी लंबी काली
सड़कों पर
दूर तक रोशनियों का झुरमुट
तब ऐसे में
कौन पूछे उसे भला?
........
टिक कर किसी दीवार से
थका हुआ चांद
सुस्ताता/ उंघता है
यहां कैसे रूक पाए अब
सोच रहा देर तलक
चांद पगलाया सा
किसी को फ़ुर्सत या
जरूरत ही नहीं है अब शायद
........
इससे तो अच्छा
गांव का गंदला पोखर ही सही
देखने को मिल तो जाती थी
अपनी सूरत
बदरंग / बेकार ही सही
पर होती तो अपनी ही
........
........
भौंचक्का, कुछ घबराया सा
ताकता है इधर उधर
खिन्न हो फ़िर चल देता है यूं ही
किसी भी ओर
अकबकाया अनमना सा
........
जैसे पहली बार आया हो
किसी छोटे से गांव से चलकर
इतने बड़े शहर में / और
जतन से सहेजा पता सामान सहित
किसी ठग ने चुरा लिया हो
शहर पहुंचते साथ ही
........
रात रात भर उंघती
गगनचुबियों की कैद में छटपटाता
अनमना सा चांद
चुपके से आंख बचा
झांक रहा चुपचाप
किसी नए बनते इमारत के
ऊपर तक उठती
स्टील गर्डरों के छेद में से
........
नीचे बिछी लंबी काली
सड़कों पर
दूर तक रोशनियों का झुरमुट
तब ऐसे में
कौन पूछे उसे भला?
........
टिक कर किसी दीवार से
थका हुआ चांद
सुस्ताता/ उंघता है
यहां कैसे रूक पाए अब
सोच रहा देर तलक
चांद पगलाया सा
किसी को फ़ुर्सत या
जरूरत ही नहीं है अब शायद
........
इससे तो अच्छा
गांव का गंदला पोखर ही सही
देखने को मिल तो जाती थी
अपनी सूरत
बदरंग / बेकार ही सही
पर होती तो अपनी ही
........
........
25 comments:
इससे तो अच्छा
गांव का गंदला पोखर ही सही
देखने को मिल तो जाती थी
अपनी सूरत
बदरंग / बेकार ही सही
पर होती तो अपनी ही
........shaandaar
सचमुच अब चाँद की कमी नहीं महसूस करते अट्टालिका में रहने वाले , चलो गाँव के पोखरे में तो अभी वो अपना चेहरा देख सकता है , ये जानकर अच्छा लगा . आप शब्दों और भावो की चितेरी हो . सुन्दर अभिव्यक्ति .
इन ऊँची ऊँची अट्टालिकाओं ने चाँद के सौन्दर्य को बाँट दिया है आकाश में, अब कौन इन सबके परे जाकर उसका समग्र स्वरूप देखे।
शहर के चाँद से तो अपने गाँव का गन्दा पोखर अच्छा ...
अट्टालिकाओं के बीच फंसे चाँद ने ऐसी भावनाएं उपजाई होंगी ...
सुन्दर रचना !
बेहतरीन कविता!
सादर-
वाह क्या खूब लिखा है ...चाँद और उसका आना
चलते -चलते पर आपका स्वागत है
शहर आज कंक्रीट का जंगल हो गया है ...चाँद के दर्द को बहुत खूबसूरती से उकेरा है ....सच है आज कल शहरों में घर से चाँद दिखाई भी कहाँ देता है ...करवा चौथ पर छत पर जा कर देखना पड़ता है :):)
इससे तो अच्छा
गांव का गंदला पोखर ही सही
देखने को मिल तो जाती थी
अपनी सूरत
बदरंग / बेकार ही सही
पर होती तो अपनी ही
क्या खूब भावों को सहेजा है और शहर और गाँव का फ़र्क भी समझा दिया है ………………आज का यही तो कटु सत्य है।
ये रात ये चाँदनी अब कहाँ……………अब तो सिर्फ़ गगनचुम्बी इमारतों मे ही घुट्कर रह गया है चाँद का अक्स भी………………बेहद पसन्द आयी।
इससे तो अच्छा
गांव का गंदला पोखर ही सही
देखने को मिल तो जाती थी
अपनी सूरत
बदरंग / बेकार ही सही
पर होती तो अपनी ही
वाह क्या बात कही है ..जबर्दस्त्त.
nice post...great
अब तो करवा चौथ पर चाँद देखना हो तो मुश्किल होती है वो भी बडी बडी अटालिकाओं के पीछे छुपा रहता है लोग पैसे की दौड मे उसे देखना ही भूल गये हैं। गाँव भी अब तो बदल रहे हैं पोखर कहाँ रहे अब सब कुछ कंक्रीट मे बदल रहा है। अच्छी लगी रचना। बधाई।
इससे तो अच्छा
गांव का गंदला पोखर ही सही
देखने को मिल तो जाती थी
अपनी सूरत
बदरंग / बेकार ही सही
पर होती तो अपनी ही
वाह!! कमाल की रचना है ... आपकी हर रचना की तरह ...
इससे तो अच्छा
गांव का गंदला पोखर ही सही
देखने को मिल तो जाती थी
अपनी सूरत
बदरंग / बेकार ही सही
पर होती तो अपनी ही
Aha! Bahut sundar! Apna gaanv yaad aa gaya...jahan chaand bahut qareeb lagta tha,aur damakta hua dikhta tha!
चाँद के दोनों रूपों को उकेरा गया है. दोनों रूपों की सुंदरता अपनी-अपनी
जगह है जिससे कविता बनी है.
रात रात भर उंघती
गगनचुबियों की कैद में छटपटाता
अनमना सा चांद
चुपके से आंख बचा
झांक रहा चुपचाप
किसी नए बनते इमारत के
ऊपर तक उठती
स्टील गर्डरों के छेद में से
अति सुंदर बिंब.
bahut achchi lagi aapki kavita.
हा.हा.हा.वैसे बिचारा चाँद आप की प्यार भरी कविता और आपके प्यारे से सहानुभूति पूर्ण मन को जान कर बहुत खुश हुआ होगा.
एक सटीक सत्य को उजागर करती चाँद पर यह कविता चांदनी की तरह बहुत निर्मल है...अब मैं जब जब चाँद निहारुंगी इस कविता के भाव याद आयेंगे.:)
आपकी इस कृति द्वारा शहरों में तेज़ी से बढते कंक्रीट जंगलों के कारण होने वाले प्राकृतिक नुक्सान का लेखा-जोखा अत्यंत सुन्दर शब्दों में मुखरित हुआ है. बड़े शहरों में चाँद को अच्छे से न निहार पाने की छटपटाहट स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है. कम से कम गाँव में इस प्रकार की तो कोई समस्या नहीं आती. सुन्दर अभिव्यक्ति !
इससे तो अच्छा
गांव का गंदला पोखर ही सही
देखने को मिल तो जाती थी
अपनी सूरत
बदरंग / बेकार ही सही
पर होती तो अपनी ही
इतनी सुन्दर कवितायें कैसे लिख लेतीं है आप? बहुत सुन्दर.
नीचे बिछी लंबी काली
सड़कों पर
दूर तक रोशनियों का झुरमुट
तब ऐसे में
कौन पूछे उसे भला?
........
अट्टालिकाओं के बीच खो गया है.... मनमोहक चाँद का रूप .....
अच्छी कविता,.
महानगरों में खिड़कियां हैं नहीं और जहां हैं,वहां खिड़की से भी कोई खिड़की ही दिखती हैं। खुले आकाश का चाँद भी बंद पन्नों में सिमट कर रह गया!
आपकी कविता में कई नए बिंब है
रचना काफी जानदार है
आपको बधाई
इससे तो अच्छा
गांव का गंदला पोखर ही सही
देखने को मिल तो जाती थी
अपनी सूरत
बदरंग / बेकार ही सही
पर होती तो अपनी ही
अब हम क्या कहें सभी कुछ तो आपने कह ही दिया है
dabirnews.blogspot.com
कमाल की रचना है
चाँद के साथ कुछ पल बडी आत्मीयता से बिताए हैं आपने । कविता पढ कर मन प्रसन्न होगया ।
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