बरसों से जीर्ण शीर्ण
सूने अंधेरे गलियारों में
घूम टहल रहे हैं वे
जहां तहां बिखेरते
बेवजह बातों के छिलके
अपनी किसी दुनिया में गुम
पल भर को चकित/ मुग्ध
निहारते उन खंडहरों को
जैसे जग पड़े हों सोते से
फ़िर उबासी का चुइंगम चबाते
निकल पड़ेंगे बाहर किले से
लौट जाने अपनी अपनी दुनियाओ में
........

आखिर को तो/ महज
सैलानी ही हैं वे
कभी भूले भटके
करेंगे याद
दीवारों पर खुदे
उन भूले बिसरे चित्रों को
पच्चीकारी/ कारीगरी को
और फ़िर भूल जाएंगे
किसी रोचक किस्से सा
........

स्मृ्तियों के चमगादड़
आशंकित/ आतंकित से
निहारेंगे भर
उन टेढ़ी-मेढ़ी
रोशनी की लकीरों को
जिनके परे दफ़्न हैं उनकी जिंदगियां
........
........