किसे पता है आईने का सच
भला कौन जान पाया है
उस के अंतस की बात
आईने का क्या कसूर
गर छवि दिखे
उसमें अपनी
भौंडी और बेतरतीब
पर हर बार सजा पाए
बस वही एक बेबस और बेकसूर
बिंबो और प्रतिबिंबो की
चौतरफ़ा मार झेलता
सच झूठ मिथ्या छ्ल
सभी बातों का
निरीह मूक एक साक्षी
संसार के अन्यायपूर्ण बातों और मांगो से
त्रस्त घबराया बौखलाया
ढूंढता है कोई सूना अंधेरा कोना
जहां तक न पहुंचती हो
रोशनी की कोई नन्ही सी भी किरण
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