कांचघर की दीवारों से घिरी
सुरक्षित/ आश्वस्त
साम्राज्ञी सी
निश्चिंत घूमती है दिन रात
अपनी छोटी सी दुनिया के
निश्चित से दायरे में
किसी कठपुतली सी
मौन/ निजी एकालापों में गुम
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नहीं जान पाती
कि गुजर रही है करीब से
जिंदगी
किसी अनजानी सी धुन पर
थिरकती
जिसकी मंद होती हुई गूंज
कभी कर देती है बेचैन
कभी उदास !
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कब में
निगल जाती है चुपचाप
कवच बन
कांचघर की दीवारें
हर पुल/ हर रास्ता
जिंदगी जिनके सहारे
सौंप जाती है
सबको अपने सपने
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नहीं जान पाती
कहीं पहुंचने के भ्रम में
भटकती है बेखबर
अपनी छोटी सी दुनिया के
निश्चित से दायरे में
किसी कठपुतली सी !!
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