अपने अपने कारावासों के
अनायास ही कभी बन आए/ बंदी से हम
कभी अन्जाने तो कभी जानबूझकर
कैद की दीवारों में से
किसी अन्देखे से छेद से झांकती
धूप के नन्हें से टुकड़े का
ताजी हवा के हल्के से उस झौंके का
मात्र एक हिस्सा बनने की चाह लिए
पल भर के लिए ही/ शायद
निकले हैं कभी झिझकते/ ठिठकते
चौंकते, ठहरते से कभी
अपने कैद की परिधि से बाहर
पर दूसरे ही पल/ विवश सा
खींच लिया है कदमों को वापस
अपने बंद अंधेरे कमरों में
बाहर की तेज चकाचौंध भरी/ धूप से
घबराकर
जलन और तपन का
एक तीखा सा अहसास लिए
अन्जानी हवा में घुटन महसूसते
कैद की उन्हीं अंधेरी दीवारों के बीच
उसी रची बसी/ जानी पहचानी घुटन में
जो नितांत अपने से ही तो हैं....!