अतीत में एक छलांग

कभी कभी लगता है मानो कहीं दुबारा लौटना भी अर्थहीन/ असंगत/ बेतुका नहीं होता. शायद उस वक्त हम एक नई अंतर्दृष्टि नई समझ के साथ अतीत को "एप्रोच" करते है....और तब अतीत शायद हमें उतना अधिक क्रूर, कटु, बेतुका और अनसमझा नहीं लगता .... शायद अतीत की ओर लौटना इतना बेमानी और फ़िजूल भी नहीं होता....शायद उस वक्त तक समय या नियति हमें और हमारी अंतर्दृष्टि को कुछ और अधिक सुस्पष्ट एवं पैना कर देती है. उन्हें चीजों/ बातों के आर पार देखने लायक बना देती है ताकि हम उन सब चीजों/ बातों के महत्त्व को अच्छी तरह से जान/ समझ लें जो किसी वक्त हमें अबूझ और समझ के परे लगती थी और उन्हें सद् भाव/ करूणा के साथ समझकर अपनाएं, अपने जीवनों में उनका स्थान सुनिश्चित कर उन्हें स्वीकारें जिनसे हम निरंतर लड़ते रहे हैं....और उनका विरोध करते रहे हैं....

हां, अगर हम यह सब कर पाने में स्वयं को अक्षम या असमर्थ पाते हैं तब शायद हमने स्वयं को प्रकृति के खिलाफ़ जाकर, जीवन प्रवाह में बहने से इंकार करके खुद को इतना अधिक थका दिया होता है कि कुछ भी करने/ सोचने / समझने की शक्ति और सामर्थ्य चुक जाती है और किसी बेजान कपड़े की गुड़िया की तरह सिर्फ़ स्थितियों/ परिस्थितियों का शिकार ही बनते रहते हैं.... "विक्टिमाइज्ड" होते रहते है.... कहीं पर यह हमारा चेतन चुनाव होता है तो किसी स्तर पर अचेतन चुनाव....!

जब एक बार हम "स्व" से अपना ध्यान हटाकर अपनी दृष्टि सृष्टि/ ब्रह्मांड पर केंद्रित करते है तब हम अपने आपको बिलकुल क्षुद्र नगण्य और हीन पाते हैं और सृष्टि/ ब्रह्मांड की विशालता हमें आतंकित कर देती है क्योंकि हम स्वयं को उससे अलगा कर देख रहे होते हैं. जब हम स्वयं को उनके बीच रखकर और अपने अनूठेपन यानी " यूनीकनैस" को ध्यान में रखकर देखें तो शायद हमें यह समझ लेने मे आसानी रहे या कि हमें यह समझ में आए कि समूची सृष्टि/ ब्रह्मांड में हमारे स्वयं का क्या स्थान है और हमारी क्या भूमिका हो सकती है.

इन सबके साथ यह भी जान लेने में ही भलाई है कि हम चीजों/ परिस्थतियों को समझने / सुलझाने मे रूचि रखते हैं या उन्हें उलझाकर सिर्फ़ उन्हें तोड़ फोड़कर नष्ट भ्रष्ट करने में. इन्हीं प्रश्नों के उत्तर पर समस्त मानवजाति की उत्तरजीविता यानी " सर्वाइवल " का रहस्य टिका हुआ है. क्योंकि अंतत: हमारे समस्त कार्यकलाप और कार्य व्यवहार हमारे साथ साथ हमारे आस पास के वातावरण को भी प्रभावित करते हैं....

किसी भी चीज को तोड़ना वहां पर तो एक अंतिम विकल्प हो सकता है जहां जोड़ने/ सुलझाने की कोई संभावना ही नहीं बची है पर महज तोड़ने/ नष्ट करने के लिए किसी चीज को तोड़ना/ नष्ट करना केवल इस वजह से कि वो आपके मन मुताबिक नहीं है शायद उचित नहीं है.

सृष्टि को बेहतर बनाने अथवा बिगाड़ने में हमारी कितनी बड़ी या नगण्य भूमिका हो सकती है और इस सबके क्या परिणाम निकल सकते है बगैर यह जाने हम बेमतलब बेतुकी अर्थहीन लड़ाईयों में खुद को इतना अधिक थका डालते है कि अपनी समस्त संभावनाओं पर झाड़ू फेर देते हैं और हर बात का नियति या समय पर दोषारोपण करके खुद साफ़ बच निकलते हैं.