रिश्तों के चक्रव्यूह ४

हमारा सारा ध्यान सिर्फ दूसरे की ओर लगा रहता है....उस के दोष कमियां और खामियां निकालने और उसे तुच्छ हीन और नाकारा साबित करने की सदा कोशिशें चलती रहती है क्योंकि तभी स्वयं को सही संपूर्ण और परफ़ेक्ट ठहराया जा सकता है. हमारी दृष्टि या ध्यान कभी अपने अंदर तक नहीं जाती या मुड़ती.... दूसरे के आचार व्यवहार क्रियाकलाप से हम दुखी हैरान परेशान और कभी कभी खुश भी होते रहते हैं. चाहे हमारे स्वयं की कितनी ही हेय दयनीय दशा क्यों न हो हम दूसरे को तकलीफ़ में कष्ट में पीड़ा मे देख कर खुश होते हैं....दूसरों का सुख या खुशी हमें परेशान पागल कर देता है.... किसी के साथ सहभागिता रखने से हम बचते हैं क्योकि उस के सुख दुख में शामिल होना इन्वाल्व होना है और इन्वाल्वमेंट के अपने खतरे हैं जिनसे अक्सर हम नहीं जूझना चाहते.... इन्वाल्वमेंट या लगाव अपने साथ कई दायित्व भी लाता है जिन्हें हम अपने ऊपर ओढ़ने से बचते और कतराते हैं क्योंकि तब हम अपनें चारों ओर घटने वाली बातों के प्रति अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकते.