रिश्तों के चक्रव्यूह ३

कभी कभी लगता है कि संबंधों में सब एक दूसरे को अपने मुताबिक महज " फ़िट " करना चाहते है " फ़िट " होना नहीं चाहते.... यही इन संबंधों की त्रासदी है. संबंधों का अर्थ एक दूसरे को करीब लाकर उन के बीच फ़ैली अंतहीन दूरियों को पाटकर उन्हें जोड़ना नहीं वरन एक दूसरे को तोड़ना भर रह गया है. जब कोई किसी दूसरे के हिस्से का सांस नहीं ले सकता तो किसी दूसरे की नियति तक का मालिक या रचियता होने का दावा कैसे कर सकता है?

संबंध साथ भर है एक अहसास मात्र.... अपनी अपनी कमियों/ खूबियों के बावजूद एक दूसरे से जुड़ना, जुड़कर साथ चलना/ रहना न कि कमियों / खूबियों को आरोपों की तरह एक दूसरे पर थोपना और लगातार थोपते रहना.... पर संबंधों का जब " इस्टिट्य़ूस्नालाज़ेशन " हो जाता है तो संबंध बचे नहीं रह सकते....बचता है सिर्फ़ दिखावा.... "शिमेरा" या एक " फ़ार्श "!

क्या दूसरा मात्र तुम्हारा " रिप्लिका " है कोई प्रतिमूर्ति या गीली मिट्टी का लौंधा मात्र जिसे तुम चाहे जो आकार / रंग / रूप दे दो. दूसरे का क्या कोई अपना अलग पृथक स्वतंत्र अस्तित्व नहीं....

संबंध दूसरे को भावनात्मक शारीरिक मानसिक और आत्मिक रूप से शोषित करने का मात्र एक जरिया है. यह एक दूसरे के साथ " इंट्रएक्ट " कर एक दूसरे की बेहतरी या आत्मिक भरपूरी समृद्धि के लिए नहीं वरन एक दूसरे को दमित या शोषित करने में प्रयुक्त होता है. दूसरा हमेशा बाहरी या अजनबी बना रहता है....परिधि के परे.... वो कभी आपके अस्तित्व का केंद्र नहीं बन पाता.... कभी आपका हिस्सा नहीं बन पाता.... दोनों मिलकर एक एकीकृत इकाई नहीं बन पाते....पर भला क्या ऐसा वाकई संभव नहीं है कौन जाने?!