रिश्तों के चक्रव्यूह २

कभी कभी लगता है कि हम एक दूसरे से नहीं वरन एक दूसरे के "आईडिया" से ज्यादा प्यार करते है जिन्हें हम सब में मौजूद कल्पना और सृजनशीलता साथ मिलकर अनूठे रंगो से सजा हमारे सम्मुख परोस देती है किसी स्वादिष्ट छप्पन भोग सा, जिसका स्वाद यथार्थ से साक्षात्कार के बावजूद मन के किसी कोने में शेष रहता है किसी "नास्टेल्जिया" की तरह. जहां किसी तरह के "कन्फ़लिक्ट" की गुंजाईश ही नहीं जहां अपने उन "आईडियाज" को अपने मन मुताबिक " चेंज" "अरेंज" या "री अरेंज" करने की बेहिच् आजादी है.

पर जब यथार्थ में हम एक दूसरे के करीब होते है तो दूसरे की हर कमजोरी को "मैग्नीफ़ाई" करके देखते हैं उसमें मौजूद सभी गुणों को अन्देखा करने की एक अवचेतन प्रयास के चलते जो हममें मौजूद अहं भाव का जरखरीद गुलाम मात्र है. तब हम एक दूसरे को तोड़ मरोड़कर अपने मुताबिक बना लेना चाहते है. उसे अपने जैसा बना लेने की इच्छा के वशीभूत होकर, ताकि दूसरा हमारा बन सके, हमारे साथ जी सके.... रिश्तों में भी स्वामित्व की भावना पीछा नहीं छोड़ती चाहे नतीजा हो " अगली सीन्स " या "कन्फ़्रन्टेशन".... एक बेवजह नरक!

केवल इस एक वजह के कारण कि आप दूसरे को कितना (?!) चाहते हैं, क्या हक है आपको कि आप दूसरे से "इम्पासिबल" की उम्मीद रखें अपनी जिंदगी सुविधाजनक सुख शांतिमय बनाने के लिए किसी दूसरी जिंदगी को अपने मन मुताबिक ढालने की कोशिश में उसे तोड़ मरोड़कर एक अपाहिज बनाकर छोड़ दे.... आखिर क्यो??