रिश्तों के चक्रव्यूह १

कभी कभी तो लगता है मानो सब लोग यहां अपने अपने मतलब या जरूरत के हिसाब से समझते हैं एक दूसरे को.... न कम न ज्यादा.... किसी को ज्यादा जानकर समझ कर क्या लेना. किसी को ज्यादा जान लेने से क्या फ़ायदा.... इन सब बातों में कोई क्यों भला अपना समय बरबाद करे? पर क्या इतना भर किसी को जान लेना या समझ लेना पर्याप्त है....? क्या दूसरा हमेशा " दूसरा " ही बना रहेगा....? फ़िर हर वक्त क्यों हमें किसी की तलाश रहती है जो हमें समझ ले.... हमें पूरी तरह से समझ ले. मानो इस समझने, न समझने पर ही हमारी पूरी जिंदगी का दारोमदार टिका हुआ है. अगर कोई हमें नहीं समझता तो उसकी "ज्यादती" है. भला कहीं यूं अनसमझा अन्जाना होकर भी जिया जा सकता है क्या....? मालूम है कि हर बार यह तलाश भटकाती मात्र है.... यह तलाश हमें कहीं पहुंचने नहीं देती.... पर ज्यादातर लोग इसी तलाश का शिकार हो इस जिंदगी के रेगिस्तान में भूखे प्यासे मर खप जाते हैं.... क्या यही जिंदगी है.... क्या जिंदगी का यही मतलब है....?

क्यों कभी लगता है दूसरा हमेशा " दूसरा " ही बना रहेगा.... क्या अकेले अकेले जीना ही हम सबकी नियति है.... और " साथ " महज एक स्वप्न.... क्षणिक.... एक पल का, कुछ पल का.... पर पूरे जीवन के काल प्रवाह में सुख के उस पल की क्या बिसात.... क्या उस एक पल के सहारे पूरी जिंदगी काटी जा सकती है.... उस एक पल को कालातीत मानना मानो समय की गति को रोक देने की बचकाना कोशिश से कुछ ज्यादा तो होगी नहीं.... समय और काल के परे भी क्या जिंदगी संभव नहीं....