अग्निपाखी

जीवन के संघर्षों के अग्निकुंड में जलते हुए अपनी ही राख से पुनर्जीवित होने का अनवरत सिलसिला....

कुछ बातों को
उम्र लग जाती है
सामने आने में
सही वक्त और सही स्थान का
इंतजार और चुनाव करते करते
थक हारकर पस्त हो चुकी बातें
समय आने तक
लुंज पुंज दशा में
खुद अपना ही
मजाक बनकर रह जाती हैं
वो सारी बातें
........

परत दर परत
अर्थों की खोलती वो बातें
गुम हो जाती हैं
हवाओं में
अस्फुट अस्पष्ट सा
शोर बनकर
जब मिलता नहीं
कोई भी इन्हें
सुनने समझने वाला
........

कुछ बातें
हमेशा जल्दबाजी
और काफी हड़बड़ी में
होती हैं
बाहर निकलने के लिए
अपनी बारी तक का
इंतजार नहीं करती
बात बे-बेबात पर
खिसियाकर झल्लाकर
तो कभी इतराकर
या इठलाकर
निकल ही पड़्ती हैं
दुश्मन को धूल चटाने
सब के सामने उसे
नीचा दिखाने
........

शत्रुतापूर्ण ईर्ष्या से भरी
कलह क्लेश की चिंगारियां उड़ाती
अपने शिकार को विष बुझे बाण चुभोकर
करती है
उस अभागे का
गर्व मर्दन
........

कुछ बातें
कोमल दूब सी
उजली धूप सी
भोले विश्वास सी
और पुरखों की सीख सी
जो बहती है ठंडी बयार सी
या बरसती है भीनी फुहार सी
........

कुछ बातें होती हैं
इतनी ढकी छिपी
कि उनकी आहट तक से
रहते है बेखबर उम्र भर
और जान पाते है उनका मायाजाल
उनके बाहर आने पर ही
जब वे तोड़ कर रख देती हैं
एक ही पल में
कितने ही रिश्ते या दिल
या जोड़ देती हैं
एक ही झटके में
टूटे हुए रिश्ते या घर
........
........

१.

धड़कन

बूढ़े बरगद की
निश्चल उच्छवास में
कैद है
पीड़ा और संताप से कराहती
धरती के
धड़कते दिल की
नन्हीं सी धड़कन
........
........

२.

आमंत्रण

हर
परिवर्तन
एक अवसर
एक आमंत्रण
जिंदगी के
उत्सव और नृत्य में
शामिल होने को
जिंदगी स्थिर नहीं
दायरों में
घूम रही है
अपने ही
नृत्य में
मस्त और डूबी
........
........

गगनचुबियों में फ़ंसा चांद
भौंचक्का, कुछ घबराया सा
ताकता है इधर उधर
खिन्न हो फ़िर चल देता है यूं ही
किसी भी ओर
अकबकाया अनमना सा
........

जैसे पहली बार आया हो
किसी छोटे से गांव से चलकर
इतने बड़े शहर में / और
जतन से सहेजा पता सामान सहित
किसी ठग ने चुरा लिया हो
शहर पहुंचते साथ ही
........

रात रात भर उंघती
गगनचुबियों की कैद में छटपटाता
अनमना सा चांद
चुपके से आंख बचा
झांक रहा चुपचाप
किसी नए बनते इमारत के
ऊपर तक उठती
स्टील गर्डरों के छेद में से
........

नीचे बिछी लंबी काली
सड़कों पर
दूर तक रोशनियों का झुरमुट
तब ऐसे में
कौन पूछे उसे भला?
........

टिक कर किसी दीवार से
थका हुआ चांद
सुस्ताता/ उंघता है
यहां कैसे रूक पाए अब
सोच रहा देर तलक
चांद पगलाया सा
किसी को फ़ुर्सत या
जरूरत ही नहीं है अब शायद
........

इससे तो अच्छा
गांव का गंदला पोखर ही सही
देखने को मिल तो जाती थी
अपनी सूरत
बदरंग / बेकार ही सही
पर होती तो अपनी ही
........
........

बरसों से जीर्ण शीर्ण
सूने अंधेरे गलियारों में
घूम टहल रहे हैं वे
जहां तहां बिखेरते
बेवजह बातों के छिलके
अपनी किसी दुनिया में गुम
पल भर को चकित/ मुग्ध
निहारते उन खंडहरों को
जैसे जग पड़े हों सोते से
फ़िर उबासी का चुइंगम चबाते
निकल पड़ेंगे बाहर किले से
लौट जाने अपनी अपनी दुनियाओ में
........

आखिर को तो/ महज
सैलानी ही हैं वे
कभी भूले भटके
करेंगे याद
दीवारों पर खुदे
उन भूले बिसरे चित्रों को
पच्चीकारी/ कारीगरी को
और फ़िर भूल जाएंगे
किसी रोचक किस्से सा
........

स्मृ्तियों के चमगादड़
आशंकित/ आतंकित से
निहारेंगे भर
उन टेढ़ी-मेढ़ी
रोशनी की लकीरों को
जिनके परे दफ़्न हैं उनकी जिंदगियां
........
........

मची है खलबली चांदनी की महफ़िल में,
सुना है आ पहुंचा नजदीक काफ़िला सूरज का.
........

मिटने से लगे है सदियों पुराने दायरे अब अंधेरों के,
जबसे होकर गुजरा है बस्तियों से काफ़िला सूरज का.
........

अंधेरों में जो घिरे बैठे थे खोए खोए,
ढूंढने आया है खुद चलकर उन्हें काफ़िला सूरज का.
........

लेके आया है वो एक समंदर रोशनी का,
जो भी डूबेगा उसी का हो गया काफ़िला सूरज का.
........

कैद कर लाया है वो रफ़्तार एक बवंडर का,
अब न रूकेगा चल पड़ा है जब काफ़िला सूरज का.
........

तिनकों से उखड़ जाएंगे जड़ समेत ये बरगद सारे,
रूख हवाओं का जब बदल देगा काफ़िला सूरज का.
........
........

आंसुओं का
जब
सितारों सा
जगमगाने का
समय आता है
तो काल भी
कुछ पल के लिए
ठहर और
थम जाता है....
गुमनाम कोनों से
निकलकर
जब आती है
आंसुओं की फ़ौज
तो
आसमान का
सूना आंचल भी
कुछ पल के लिए
रोशनियों की
जगमगाहट से
दमक उठता है
........
........

रोशनी की नदी


शून्य के केन्द्र तक का सफ़र किस कदर आंसुओं असफ़लता और अकेलेपन से भरा है, इसे वही ठीक से बता सकता है जो कि उन कठिन दुर्गम मार्गों से गुजरा है, और उनका साक्षी भी रहा है. पर उनके जीवनों के अनुभव हमारे जीवनों को कुछ अधिक समृद्ध और सुन्दर बना देते हैं. वे हमें जीवन के उन आयामों और पक्षों से हमारा साक्षात्कार कराते है जिनकी कल्पना अबसे कुछ पल पहले तक असंभव प्रतीत हो रही थी. उन्हें, उन लोगों ने अपने अदम्य साहस और अपूर्व हौसले और आत्मविश्वास के बूते संभव और साकार कर दिखाया और कृष्ण पक्ष के अंधेरी रातों का उज्जवल आयाम लोगों के समक्ष रखने का जोखिम उठाया जिसे लोग अक्सर अन्देखा करते है और जो अंधकार को सिर्फ़ बुराई का गढ़ या पर्याय मानते रहे हैं. पर अंधकारमय जीवनों में भी छुपे हैं कल्पनातीत संभावनाओं से सृजित सुन्दर सपनों के इन्द्रधनुषी पुलों व सेतुओं के अनगिन जाल जो घने कोहरों के धुंधलके में डूबी जिंदगियों में विद्युत बन उजास फ़ैलाते हैं और न जाने कितनी ही जिंदगियों को रोशन कर जाते हैं.

साधारण लोगों की असाधारण कहानियों के सिरे गुमनामी के गर्त में समा जाते हैं, हम सबकी उपेक्षा, उदासीनता और उत्साह हीनता के बदौलत जिन पर एक से एक बहानों की लीपापोती करके अपने उत्तरदायित्व से पिंड छुड़ा लेते हैं, और इस तरह अन्जाने में ही हम रोज ही अपने मानव बने रहने के उत्तराधिकार को ठुकराते और गंवाते है. ऐसे कर्मठ और जुझारू लोगों को अभावों, उपेक्षा, उपहास, उपालंभ और तिरस्कार की अग्नि जलाकर राख में तब्दील नहीं करती बल्कि उन्हें रोशनी के एक अजस्त्र प्रवाहमान नदी बना देती है, जिसकी रोशनी में आज भी साधारण लोग अपना जीवन बिना किसी कड़वाहट के हंसी खुशी बिता देते है.

‘जीरो वॅाट’ की फीकी बुझी रोशनी वाली जिंदगी का बोझ कमजोर कंधों पर डाले अपने क्लांत हाथों से हांफते कराहते चोटी तक पत्थर पहुंचाने के प्रयत्न में जुटे हुए हैं सदियों से अभिशप्त ‘सिसिफस’ के वंशज... यह जानते हुए भी कि चोटी पर पहुंचते ही पत्थर नीचे की ओर लुढ़क पड़ेगा पर उन्हें पत्थर को चोटी पर पहुंचाना ही है चाहे जो भी हो. इतना धैर्य इतनी कर्मठता शायद उन्हें इसीलिए ही मिली है ताकि वे समूचे संसार का बोझ बिना किसी शिकवे या शिकायत के अपने ऊपर उठा लें और बिना किसी प्रतिफल की इच्छा किए अपने छोटे से संसार में मगन रहें इस अनास्था की महारात्रि में.... प्रज्जवलित दीपों की तरह..... किन्हीं दीप स्तंभों की तरह.....

मेरे पिताजी ने जिंदगी के उतार चढ़ाव भरे हर सफ़र को सहज भाव से जिया. अपने परिवेश के प्रति संवेदनशीलता और सजगता ने उन्हें पारिवारिक जीवन के साथ साथ सामाजिक सरोकारो से भी जोड़े रखा. आज भी पक्षाघात के शिकार होने के बावजूद भी उन की संघर्षरत मानसिकता की लौ मद्धम नहीं पड़ी है. सब कुछ के बावजूद उनका सहज सरल और रागात्मकता भरा जीवन मेरा प्रेरणास्रोत रहा है.

मैं परमेश्वर पिता से उनके जीवन में एक और साल बढ़ाने के लिए धन्यवाद के साथ, उनकी लंबी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य की कामना करते हुए, अपनी दो कविताएं उन्हें समर्पित करती हूं.


गिद्धों और सियारों की टोली से....

खबरदार
अभी नहीं हुआ है सब कुछ खत्म
अभी तो है जिंदगी से जंग बाकी
अभी तक नहीं टूटी है सांसे
अभी तो है थोड़ी सी आस बाकी
........

अभी इन बूढ़ी आंखों में आग है बाकी
अभी बूढ़ी हड्डियों में दमखम है कायम
इन बुझती आवाजों में ललकार है बाकी
भले ही हो टूटी फूटी हमारी तलवारें
पर फ़िर से युद्ध लड़ने को
उनमें झंकार और टंकार है बाकी
........

हमारे बच्चे किसी के गुलाम नहीं
राजसिंहासन के उनके दावे अभी है बाकी
अभी वे थक कर सोए है जरा देर को
बिसात पर उनकी चाल अभी है बाकी
........
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रोशनी का जंगल

बिखरे हैं
बेतरह उलझे / अंधेरों के झाड़ झंखाड़
उखाड़ उन्हें रोप दूंगी अब मैं
हर तरफ़ / रोशनी की बेलें
और तब / फूटेगी यहां वहां
कली.... कली.... रोशनी की डली
उग आएगा चारों ओर / एक
रोशनी का जंगल !
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दीपावली की शुभकामनाएं

इस ज्योति पर्व का उजास
जगमगाता रहे आप में जीवन भर
दीपमालिका की अनगिन पांती
आलोकित करे पथ आपका पल पल
मंगलमय कल्याणकारी हो आगामी वर्ष
सुख समृद्धि शांति उल्लास की
आशीष वृष्टि करे आप पर, आपके प्रियजनों पर
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