कांचघर की दीवारों से घिरी
सुरक्षित/ आश्वस्त
साम्राज्ञी सी
निश्चिंत घूमती है दिन रात
अपनी छोटी सी दुनिया के
निश्चित से दायरे में
किसी कठपुतली सी
मौन/ निजी एकालापों में गुम
........
नहीं जान पाती
कि गुजर रही है करीब से
जिंदगी
किसी अनजानी सी धुन पर
थिरकती
जिसकी मंद होती हुई गूंज
कभी कर देती है बेचैन
कभी उदास !
........
कब में
निगल जाती है चुपचाप
कवच बन
कांचघर की दीवारें
हर पुल/ हर रास्ता
जिंदगी जिनके सहारे
सौंप जाती है
सबको अपने सपने
........
नहीं जान पाती
कहीं पहुंचने के भ्रम में
भटकती है बेखबर
अपनी छोटी सी दुनिया के
निश्चित से दायरे में
किसी कठपुतली सी !!
........
........
सुरक्षित/ आश्वस्त
साम्राज्ञी सी
निश्चिंत घूमती है दिन रात
अपनी छोटी सी दुनिया के
निश्चित से दायरे में
किसी कठपुतली सी
मौन/ निजी एकालापों में गुम
........
नहीं जान पाती
कि गुजर रही है करीब से
जिंदगी
किसी अनजानी सी धुन पर
थिरकती
जिसकी मंद होती हुई गूंज
कभी कर देती है बेचैन
कभी उदास !
........
कब में
निगल जाती है चुपचाप
कवच बन
कांचघर की दीवारें
हर पुल/ हर रास्ता
जिंदगी जिनके सहारे
सौंप जाती है
सबको अपने सपने
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नहीं जान पाती
कहीं पहुंचने के भ्रम में
भटकती है बेखबर
अपनी छोटी सी दुनिया के
निश्चित से दायरे में
किसी कठपुतली सी !!
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6 comments:
"ला-जवाब" जबर्दस्त!!
सुंदर प्रस्तुति....
नवरात्रि की आप को बहुत बहुत शुभकामनाएँ ।जय माता दी ।
सुन्दर!
बहुत खूबसूरती से मनोभावों को कहा है
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना ( पतझर राग ) 12 -10 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
आप सभी सुधिजनों को मेरी रचना सराहने और उत्साहवर्धन एवं शुभकामनाओं के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.
आशा है आगे भी आपका स्नेह, सहयोग और मार्गदर्शन मिलता रहेगा.
सादर,
डोरोथी.
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