मन
किसी बिगड़ैल घोड़े सा
बारंबार निषिद्ध मार्गों पर
भाग जाना चाहता है सरपट
बदहवास लगाम थामे
सुनती हूं मैं
दूर कहीं ---
सूखे पत्ते का झड़ना
जमी हुई बर्फ़ का चटकना
और कर्कश कौओं का चिल्लाना !!



यूं ही बेवजह
बजता है / अब भी
पतझड़ राग
मन की सूनी दीवारों पर
........
यूं ही बेवजह
अनमनी सी टहलती है
सहमी हुई चाहें
नींद और जाग के दरम्यान
........
यूं ही बेवजह
उंगलियां तराश देती है
फ़िर से नया कोई बुत
भले ही पत्थर बने रहे वो
बरसों पूजने के बाद
........
यूं ही बेवजह
लौटा लेने को/ जी
चाहता है
बीते पलों का
दिलकश जादू ....!!